आनंद फिल्म का एक गाना है-जिंदगी है एक पहेली, कभी हंसाये तो कभी रुलाये।’ एक दूसरा गाना भी याद आ रहा है-‘जिदगी के सफर में गुज़र जाते हैं मुकाम वो फिर नहीं आते।’ एक दौर था जब हमारी हिन्दी फिल्मों के गाने मनोरंजन के साथ ही दर्शन से भी भरे होते थे। यह ऐसे गाने थे जो गीत संगीत प्रेमी होने के साथ ही दिमाग मेें दर्शन तत्व भी स्थापित करते थे। कहते हैं कि जिंदगी के उम्र की दृष्टि से रुचिया बदलती हैं या बदल देना चाहिये। हमें लगता है कि यह नियम उन लोगों पर लागू होता है जो जिंदगी में अभिव्यक्त होने के शौक नहीं पालते। बहुत कम लोग होते हैं कि उनकी इंद्रियां ग्रहण करने के साथ ही त्याग के लिये भी लालायित रहती हैं। जिस तरह हम मुख से ग्रहण वस्तुओं को पेट में अधिक नहीं रख पाते। उसी तरह स्वर, शब्द तथा दृश्य के संपर्क में आयी इंद्रियां भी गेय अर्थ का विसर्जन करना चाहती है। मुश्किल यह है कि ग्रहण तथा विसर्जन के मध्य एक चिंतन की प्रक्रिया है जिसमें कोई भी अपनी बुद्धि खर्च नहीं करता चाहता। ऐसा नहीं है कि लोग देखने, सुनने तथा बोलने की क्रिया से दूर रहते हैं पर उनके शब्द, व्यवहार तथा अन्य क्रियायें आंतरिक शोध के अभाव में अस्त व्यस्त दिखाईं देती हैं।
समय के साथ जीवन शैली भी बदली है। लोग आज प्रकृत्ति से अधिक आधुनिक साधनों के कृत्रिम आनंद से इस तरह जुड़े हैं कि उनका बौद्धिक अभ्यास न्यूनतम स्तर पर आ गया है। परिणाम यह है कि मानसिक तनाव से पैदा बीमारियां बढ़ रही हैं। हम कभी देखते थे कि नये सिनेमाघर बनते थे तो लोग उन्हें देखने जाते थे। अब स्थिति यह है कि बड़े बड़े सिनेमाघर बंद हो रहे हैं और नये अस्पताल बाहर से ऐसे लगते हैं जैसे कि सिनेमाघर बना हो। गीत संगीत के प्रेमी तो आज कम ही देखने को मिलते हैं। हमारा अनुभव तो यह रहा है कि जिसे कोई अतिरिक्त शौक नहीं है उसमेें सोच की शक्ति भी कम ही रहती है। एक तरह से व्यक्ति रूखा होता है भले ही वह रुचिवान होने का दावा करता हो। जिंदगी के दौर में यह बदलाव सभी देखते हैं पर इस पर सोच पायें इसका कष्ट कम ही लोग उठाते हैं।
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