हमारे दर्शन के अनुसार पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही किसी मनुष्य को राजसी
कर्म करना चाहिये। ऐसे में जिन लोगों पर राज्य का भार है उनको प्रजा हित के लिये
अधिक ही परिश्रम करना होता है इसलिये उनका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है। आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राज्य
व्यवस्थाओं में इस नीति का पालन नहीं किया जा रहा है। आज तो सभी देशों में यही
देखा जाता है कि चुनाव में कौन जीत सकता है? चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता ही राज्यपद पाने का
एक आधार बन गयी है। ऐसे में अनेक देशों के
राज्य प्रमुख शासन में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता खो देते हैं। दूसरी
बात यह भी है कि पद की अवधि पांच या छह साल होती है उसमें राज्य पद पर प्रतिष्ठित
होने पर व्यक्ति की चिंतायें प्रजा हित से अधिक अपने चुनाव के लिये चंदा देने
वालों का उधार चुकाने या फिर अगले चुनाव में फिर अपना पद बरबकरार रहने की होती
है। कुछ समय विपक्षियों का सामना करने तो
बाकी समय जनता के सामने नये वादे करते रहने में लग जाता है।
अनेक देशों के राज्य प्रमुख शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के बावजूद
सत्ता रस पीते रहते हैं। राज्य के अधिकारी भी अपनी नौकरी चलाते हुए केवल राज्य
प्रमुख की कुर्सी बचाये रखने में अपना हित समझते हैं। विश्व प्रसिद्ध चिंत्तक
कार्लमार्क्स ने अपने पूंजी नामक पुस्तक में इन पूंजीपतियों के हाथ लग चुकी
व्यवस्थाओं की चर्चा बहुत की है। यह अलग
बात है कि उसके अनुयायियों ने भी अपने शासित राष्ट्रों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से बीमार लोगों को
उच्च पदों पर बैठाये रखा और बेबस जनता तानाशाही की वजह से उनको ढोती रही। वामपंथी व्यवस्था में बौद्धिकों को वैचारिक
मध्यस्थ बन कर मजे लूटने की सुविधा मिलती है इसलिये वह जनहित की बातें बहुत करते
हैं पर अपने शिखर पुरुषों की शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता को निजी विषय बताते हैं। मजे की बात यही है कि यही वामपंथी बौद्धिक
मध्यस्था मनुस्मृति का जमकर विरोध करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अमात्यंमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्भवम्।
स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य प्रमुख अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से
प्रजाहित के कार्यों का निरीक्षण करने में असमर्थ हो तब उसे अपना कार्यभार किसी
बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभ्य तथा शिष्ट पुरुष को सौंप देना चाहिये।
विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्धियन्ते दस्युभिः
प्रजाः।
सम्पतश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।
हिन्दी में भावार्थ-उस
राजा या राज्य प्रमुख को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिये जिसके अधिकारियों के
सामने ही डाकुओं से लूटी जाती प्रजा हाहाकर मदद मांगती है पर वह उसे बचाते ही नहंी
है।
सामान्य सिद्धांत तो यही है कि अस्वथ्यता की स्थिति में राज्य प्रमुख किसी
गुणी आदमी को अपना पदभार सौप दे पर होता यह है कि वामपंथी विचारक शिखर पर बैठे
पुरुष को अपने अनुकूल पाते हैं तो वह उसकी जगह किसी दूसरे को स्वीकार नहंी करते।
दूसरी बात यह है कि आजकल के राज्य प्रमुखों में इतनी मानवीय चतुराई तो होती है कि
वह अपने बाद के दावेदारों को आपस में लड़ाये रखते है ताकि कोई उसकी जगह कोई दूसरा
नहीं ले सके। अनेक जगह तो राज्य प्रमुख इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि उनके बाद
उनके परिवार के सदस्यों को ही जगह मिले। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ चीन में भी अब
शासन में परिवारवाद आ गया है। वामपंथियों
ने शायद इसलिये ही हमेशा मनुस्मृति का विरोध किया है ताकि उसकी सच्चाई से आम लोग
अवगत न हों और उनका छद्म समाज सुधार का अभियान चलता रहे।
हम आजकल पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमराने की बात करते हैं। उसका मुख्य
कारण यही है कि अनेक महत्वपूर्ण देशों का शासन पुराने राजनीतिक सिद्धांतों की
अनदेखी कर चलाया जा रहा है। स्थिति यह है कि तानाशाही व्यवस्था हो या लोकतांत्रिक
सत्य कहने का अर्थ अपने लिये शत्रुओं का निर्माण करना होता है। अपनी आलोचना सहन
करने के लिये पर्याप्त प्राणशक्ति बहुत कम लोगों में रह गयी है। इसका मुख्य कारण
शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक
अस्वस्थता ही है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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