Thursday, December 27, 2012

मनु स्मृति-बिना कुल्ला किये बाहर न जाएँ

         पूरे विश्व में सोना स्त्रियों की कमजोरी है तो अपराधियों के लिये आकर्षण की वस्तु  है।  देखा जाये तो सोना किसी का काम नहीं है पर फिर भी इसकी कीमत का महत्व इतना है कि किसी आदमी की प्रशंसा करनी हो तो उसे सोने के समान कहा जाता है। स्वयं को दूसरों के सामने स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करना मनुष्य का स्वभाव होता है। अनेक लोग दूसरे मनुष्यों का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिये उच्छृंखलता का व्यवहार करते हैं। कुछ अपनी उद्दंण्डता से स्वयं को शक्तिशाली साबित करना चाहते है। दरअसल इस प्रयास में अनेक लोग ऐसे निंदनीय कार्य करते हैं जिनका आभास ज्ञान न होने के कारण उनको नहीं होता। आमतौर से सोने का हार पहनना स्त्री जाति के लिये एक धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा रही है। वह भी उसे अपने वस्त्रों के पीछे छिपाये रहती हैं या उसे ऐसे पहनती हैं कि हार का पूरा भाग दूसरे को नहीं दिखाई दे। अब तो पुरुष जाति में भी सोने की चैन पहनने का रिवाज प्रारंभ हो गया है। तय बात है कि यह सब दिखाने के लिये है और इसलिये जो पुरुष सोने की चैन पहनते है उसे वस्त्रों के बाहर प्रदर्शित करते हैं। मनुस्मृति में इसे निंदनीय कार्य बताया गया है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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न विगृह्य कर्था कुर्याद् बहिर्माल्यं न धारयेत्।
गवां च यानं पृष्ठेन सर्वथैव विगर्हितम्।।
               ‘‘उच्छृ्रंखल पूर्व बातचीत करने, प्रदर्शन के लिये कपड़ो के बाहर सोने की माला पहनना और बैल की पीठ पर सवारी करना निंदनीय कार्य हैं।’’
सर्वे च तिलसम्बद्धं नाद्यादस्तमिते रवी।
न च नग्न शयीतेह च योच्छिष्ट क्वच्तिद्व्रजेत्।
             ‘‘सूर्यास्त होने के बाद तिलयुक्त पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए और न ही नग्न होकर पानी पीना चाहिए। जूठे मुंह यानि बिना कुल्ला किये बाहर भी नहीं जाना चाहिए।’’
          यह तो केवल एक उदाहरण है जबकि हम समाज की दिनचर्या में कई ऐसे तथ्य देख सकते हैं जिसमें लोग आचरणहीनता दर्शाने वाले विषयों को फैशन मानने लगे हैं। बातचीत में अनावश्यक रूप से उग्र भाषा का प्रयोग करना अथवा जोरदार आवाज में बोलकर अपनी बात को सही प्रमाणित करना इसी श्रेणी में आता है। अनेक लोगों की तो यह आदत है वह वार्तालाप के समय हर वाक्य के साथ गाली का प्रयोग करते हैं बिना यह जाने कि इसका उपस्थित श्रोताओं पर विपरीत प्रभाव होता है। मनुस्मृति का अध्ययन करने पर अनेक ऐसे कामों से बचा जा सकता है जिनके दुष्प्रभावों से अवगत न होने पर हम उनको करते हैं।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Monday, December 24, 2012

मलूकदास का दर्शन-वेश धारण करने से कोई साधु नहीं बन जाता


         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।
            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।
                  संत मलूक जी कहते हैं कि
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भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।
दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।
          ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
               ‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
              हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
          ‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’
             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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