Saturday, February 25, 2012

पतंजलि योग साहित्य-दृश्य का स्वरूप दृष्टा के लिये है (patanjali yaga sahitya-drhishta aur drishya)

            देह और आत्मा को लेकर हमारे समाज में अनेक विचार प्रचलन में है पर पतंजलि योग सूत्र के अनुसार आत्मा जहां देह के लिये प्राण धारण करता है वहीं देह में कार्यरत इंद्रियों के अनुसार सक्रिय रहता है। इसके लिये यह जरूरी है कि योग के माध्यम से इसे समझा जाये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के कुछ विद्वान आत्मा को परमात्मा का अंश मानते हैं तो कुछ आत्मा को ही परमात्मा मानते हैं। इस तरह की राय में भिन्नता के बावजूद यह एक सत्य बात है कि आत्मा अत्यंत शक्तिशाली तत्व है जिसे समझने की आवश्यकता है। दरअसल जो लोग के माध्यम से इंद्रियों और आत्मा का संयोग करते हैं वही जानते हैं कि तत्पज्ञान क्या है और उसको सहजता से कैसे जीवन में धारण किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा में भेद करने जैसे विषयों में अपना दिमाग खर्च करने से अच्छा है कि अपनी आत्मा को पहचानने और उसे अपनी इ्रद्रियों को संयोजन का प्रयास किया जाये।
            पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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            द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
          ‘‘चेतनमात्र दृष्ट (आत्मा) यद्यपि स्वभाव से एकदम शुद्ध यानि निर्विकार तो बुद्धिवृति के अनुरूप देखने वाला है।
           तदर्थ एवं दृश्यस्यात्मा।।
         ‘‘दृश्य का स्वरूप उस द्रष्टा यानि आत्मा के लिये ही है।’’
          पंचतत्वों से बनी इस देह का संचालन आत्मा से ही है मगर उसे इसी देह में स्थित इंद्रियों की सहायता चाहिए। आत्मा और देह के संयोग की प्रक्रिया का ही नाम योग है। मूलतः आत्मा शुद्ध है क्योंकि वह त्रिगुणमयी माया से बंधा नहीं है पर पंचेंद्रियों के गुणों से ही वह संसार से संपर्क करता है और बाह्य प्रभावों का उस पर प्रभाव पड़ता है।
           आखिर इसका आशय क्या है? पतंजलि विज्ञान के इस सूत्र का उपयोग क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर तभी जाना जा सकता है जब हम इसका अध्ययन करें। अक्सर ज्ञानी लोग कहते हैं कि ‘किसी बेबस, गरीब, लाचार, तथा बीमार या बेजुबान पर अनाचार मत करो’ तथा ‘किसी असहाय की हाय मत लो’ क्योंकि उनकी बद्दुआओं का बुरा प्रभाव पड़ता है। यह सत्य है क्योंकि किसी लाचार, गरीब, बीमार और बेजुबान पशु पक्षी पर अनाचार किया जाये तो उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही वह स्वयं दानी या महात्मा न हो चाहे उसे ज्ञान न हो या वह भक्ति न करता हो पर उसका आत्मा उसके इंद्रिय गुणों से ही सक्रिय है यह नहीं भूलना चाहिए। अंततः वह उस परमात्मा का अंश है और अपनी देह और मन के प्रति किये गये अपराध का दंड देता है।
         कुछ अल्पज्ञानी अक्सर कहते है कि देह और आत्म अलग है तो किसी को हानि पहुंचाकर उसका प्रायश्चित मन में ही किया जा सकता है इसलिये किसी काम से डरना नहीं चाहिए। । इसके अलावा पशु पक्षियों के वध को भी उचित ठहराते हैं। यह अनुचित विचार है। इतना ही नहीं मनुष्य जब बुद्धि और मन के अनुसार अनुचित कर्म करता है तो भी उसका आत्मा त्रस्त हो जाता है। भले ही जिस बुद्धि या मन ने मनुष्य को किसी बुरे कर्म के लिये प्रेरित किया हो पर अंततः वही दोनों आत्मा के भी सहायक है जो शुद्ध है। जब बुद्धि और मन का आत्मा से संयोग होता है तो वह जहां अपने गुण प्रदान करते हैं तो आत्मा उनको अपनी शुद्धता प्रदान करता है। इससे अनेक बार मनुष्य को अपने बुरे कर्म का पश्चाताप होता है। यह अलग बात है कि ज्ञानी पहले ही यह संयोग करते हुए बुरे काम मे लिप्त नहीं होते पर अज्ञानी बाद में करके पछताते हैं। नहीं पछताते तो भी विकार और दंड उनका पीछा नहीं छोड़ते।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, February 19, 2012

चाणक्य नीति-छात्र छात्राओं को मन बहलाने से बचना चाहिए (chankya neeti or policy-today students and education)

              आधुनिक शिक्षा जगत में पश्चिम की विचारधारा के पोषक तत्वों का बोलबाला है। आजकल के माता पिता यह अपेक्षा करते हैं कि उनके बच्चे स्कूल से संपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी बनकर बाहर आयें। स्वयं कोई अपने बच्चों में न संस्कार डालना चाहता है न उनमें इतनी शक्ति है कि वह स्वयं ही भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर स्वयं ज्ञान अर्जित करने के साथ ही अपने परिवार को सुसंस्कृत बना सकें। सभी अर्थोपर्जान में यह सोचकर लगे हैं कि उससे ही बुद्धि, संस्कार और ज्ञान स्वतः आ जाता है। न भी आये तो समाज तो वैसे ही धनिकों को सम्मान मिलता है। इसके अलावा पालकगण बच्चों को बड़े और महंगे स्कूल भेजकर अपनी जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त समझते हैं। उधर स्कूलों के प्रबंधक भी अपनी छवि बनाये रखने के लिये कभी पिकनिक तो कभी पर्यटन के कार्यक्रम आयोजित कर जहां यह साबित करते है कि वह अपने यहां पढ़ रहे छात्र छात्राओं को शैक्षणिकेत्तर गतिविधियों में संलिप्त कर उनको पूर्ण व्यक्त्तिव का स्वामी बना रहे है वहीं उनको अतिरिक्त आय भी अर्जित करते हैं। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने उसे भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे कर दिया है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
                 
                                                 गृहाऽऽसक्त्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनः।
                                                    द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणस्य न पवित्रता।।
                        ‘‘घर में आसक्ति रखने वाले को कभी विद्या नहीं मिलती। मांस का सेवन करने वाले में कभी दया नहीं होती। धन के लोभी में सत्य का भाव नहीं आता और दुराचार, व्याभिचार तथा भोगविलास में लिप्त मनुष्य में शुद्धता नहीं होती।’’
                                       कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृ्ङ्गारकौतुके।
                                         अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्याष्ट वर्जयेत्।।
              ‘‘कामुकता, क्रोध और लालसा, बिना परिश्रम के चीजों के मिलने की आशा, स्वादिष्ट भोजन के खाने की इच्छा, सजना संवरना, खेल तमाशे, तथा मन बहलाने के लिये खेलना, बहुत सोना तथा किसी दूसरे की अत्यधिक सेवा या चाटुकारिता करना इन आठ विषयों से छात्रों को बचना चाहिये।
                विद्यालयों में अतिरिक्त गतिविधियों तो भी हों तो भी ठीक है मगर अब तो स्कूल या कॉलिज के नाम पर छात्र छात्रायें अपनी मैत्री को भी एक आनंद के रूप में फलीभूत होते देखना चाहते है। इसी कारण अनेक ऐसी अप्रिय वारदातों सामने आती है जिनसे अतंतः पालकों अपमानित होना ही पड़ता है। महाविद्यालयों में अनेक छात्र छात्रायें मैत्री और प्यार के नाम पर ऐसे संबंध बनाते हैं जो उनके लिये ऐसे संकट का कारण बनता है जिससे उनका पूरा जीवन ही तबाह हुआ लगता है।
               दरअसल शैक्षणिक जीवन केवल अध्ययन के लिये है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में जीवन के अनुभव सीखने या सिखाने की अपेक्षा करना माता पिता का अपनी जिम्मेदारी से भागना है तो शिक्षकों के लिये एक अतिरिक्त बोझ हो जाता है। जहां तक खेलों का प्रश्न है तो उनको घरेलू विषय मानना चाहिए। जिससे बच्चे अपने आसपास के बच्चों के साथ खेलते हुए सीख सकते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि छात्र जीवन में ऐसे विषयों से दूर रहना चाहिए जो उसमें बाधा डालते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Monday, February 6, 2012

मनुस्मृति-स्वर्ण की माला वस्त्र के बाहर न पहने (sone ki mala aur vastra-manu smruti)

         पूरे विश्व में सोना स्त्रियों की कमजोरी है तो अपराधियों के लिये आकर्षण की वस्तु  है।  देखा जाये तो सोना किसी का काम नहीं है पर फिर भी इसकी कीमत का महत्व इतना है कि किसी आदमी की प्रशंसा करनी हो तो उसे सोने के समान कहा जाता है। स्वयं को दूसरों के सामने स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करना मनुष्य का स्वभाव होता है। अनेक लोग दूसरे मनुष्यों का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिये उच्छृंखलता का व्यवहार करते हैं। कुछ अपनी उद्दंण्डता से स्वयं को शक्तिशाली साबित करना चाहते है। दरअसल इस प्रयास में अनेक लोग ऐसे निंदनीय कार्य करते हैं जिनका आभास ज्ञान न होने के कारण उनको नहीं होता। आमतौर से सोने का हार पहनना स्त्री जाति के लिये एक धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा रही है। वह भी उसे अपने वस्त्रों के पीछे छिपाये रहती हैं या उसे ऐसे पहनती हैं कि हार का पूरा भाग दूसरे को नहीं दिखाई दे। अब तो पुरुष जाति में भी सोने की चैन पहनने का रिवाज प्रारंभ हो गया है। तय बात है कि यह सब दिखाने के लिये है और इसलिये जो पुरुष सोने की चैन पहनते है उसे वस्त्रों के बाहर प्रदर्शित करते हैं। मनुस्मृति में इसे निंदनीय कार्य बताया गया है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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न विगृह्य कर्था कुर्याद् बहिर्माल्यं न धारयेत्।
गवां च यानं पृष्ठेन सर्वथैव विगर्हितम्।।
               ‘‘उच्छृ्रंखल पूर्व बातचीत करने, प्रदर्शन के लिये कपड़ो के बाहर सोने की माला पहनना और बैल की पीठ पर सवारी करना निंदनीय कार्य हैं।’’
सर्वे च तिलसम्बद्धं नाद्यादस्तमिते रवी।
न च नग्न शयीतेह च योच्छिष्ट क्वच्तिद्व्रजेत्।
             ‘‘सूर्यास्त होने के बाद तिलयुक्त पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए और न ही नग्न होकर पानी पीना चाहिए। जूठे मुंह यानि बिना कुल्ला किये बाहर भी नहीं जाना चाहिए।’’
          यह तो केवल एक उदाहरण है जबकि हम समाज की दिनचर्या में कई ऐसे तथ्य देख सकते हैं जिसमें लोग आचरणहीनता दर्शाने वाले विषयों को फैशन मानने लगे हैं। बातचीत में अनावश्यक रूप से उग्र भाषा का प्रयोग करना अथवा जोरदार आवाज में बोलकर अपनी बात को सही प्रमाणित करना इसी श्रेणी में आता है। अनेक लोगों की तो यह आदत है वह वार्तालाप के समय हर वाक्य के साथ गाली का प्रयोग करते हैं बिना यह जाने कि इसका उपस्थित श्रोताओं पर विपरीत प्रभाव होता है। मनुस्मृति का अध्ययन करने पर अनेक ऐसे कामों से बचा जा सकता है जिनके दुष्प्रभावों से अवगत न होने पर हम उनको करते हैं।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Friday, February 3, 2012

पतंजलि योग साहित्य-नतीजों से भी काम का अनुमान किया जा सकता है(patanjali yaog literature-word and result, kaam aur uska parinam)

               कभी हमें किसी व्यक्ति की स्थिति देखकर उसकी सक्रियता का अनुमान लग सकता है। अगर हमें योग का ज्ञान है तो हम किसी को नतीजा भोगते देखकर यह अनुमान भी लगा सकते है कि उसने किस तरह काम किया होगा। इतना ही नहीं हम जो कर्म करते हैं उसके परिणामों का भी हमें अच्छी तरह आभास हो जाता है।  आमतौर से आधुनिक विज्ञापन ज्योतिष तथा मनुष्यों की सिद्धि पर विश्वास नही करता पर पतंजलि योग के अनुसार अगर कोई योगासन, ध्यान, प्राणायाम करने के साथ ही संयम का पालन करे तो वह इतना सिद्ध हो जाता है कि उसे अपने भविष्य का ज्ञान होने लगता है। इतना ही नहीं अगर हम किसी व्यक्ति को काम करते नहीं देख पाए  पर उसे नतीजे भोगते देखकर भी यह अंदाज लगाया जा सकता है कि उसने क्या किया होगा।
पतंजलि योगशास्त्र  में कहा गया है कि
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क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।

             ‘‘किसी कार्य करने के क्रम में भिन्नता से परिणाम भी भिन्न होता है।’’
परिणामन्नयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।।
              ‘‘अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का विचार करने से परिणाम का ज्ञान हो जाता है।’’

                    पतंजलि योग में न केवल भौतिक तथा दृश्यव्य संसार को जानने की विधा बताई गयी है बल्कि अभौतिक तथा अदृश्यव्य स्थितियों के आंकलन का भी ज्ञान दिया गया है। हमारे सामने जो भी दृश्य आता है वह तत्काल प्रकट नहीं होता बल्कि वह किसी के कार्य के परिणाम स्वरूप ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति हमारे घर आया तो इसका मतलब वह किसी राह से निकला होगा। वहां भी उसके संपर्क हुए होंगे। वह हमारे घर पर जो व्यवहार करता है वह उसके घर से निकलने से लेकर हमारे यहां पहुंचने तक आये संपर्क तत्वों से प्रभावित होता है। वह धूप में चलकर आया है तो दैहिक थकावट के साथ मानसिक तनाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। कोई घर से लड़कर आया है तो उसका मन भी वहीं फंसा रह जाता है और भले ही वह उसे प्रकट न करे पर उसकी वाणी तथा व्यवहार अवश्य ही नकारात्मक रूप से परिलक्षित होती है।

            कहने का अभिप्राय यह है कि हम प्रतिदिन जो काम करते हैं या लोगों हमारे लिये काम करते हैं वह कहीं न कहीं अभौतिक तथा अदृश्यव्य क्रियाओं से प्रभावित होती हैं। इसलिये कोई दृश्य सामने आने पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि उस दृश्य के पीछे कौन कौन से तत्व हैं। व्यक्ति, वस्तु या स्थितियों से प्रभावित होकर ही कोई धटना हमारे सामने घटित होती है। जब हमें यह ज्ञान हो जायेगा तब हमारे व्यवहार में दृढ़ता आयेगी और हम अनावश्यक परिश्रम से बच सकते हैं। इतना ही नहीं किसी दृश्य के सामने होने पर जब हम उसका अध्ययन करते हैं तो उसके अतीत का स्वरूप भी हमारे अंतर्मन में प्रकट होता है। जब उसका अध्ययन करते हैं तो भविष्य का भी ज्ञान हो जाता है।         
         हम अपने साथ रहने वाले अनेक लोगों का व्यवहार देखते हैं पर उसका गहराई से अध्ययन नहीं करते। किसी व्यक्ति के मन में अगर पूर्वकाल में से दोष रहे हैं और वर्तमान में दिख रहे हैं तो मानना चाहिए कि भविष्य में भी उसकी मुक्ति नहीं है। ऐसे में उससे व्यवहार करते समय यह आशा कतई नहीं करना चाहिए कि वह आगे सुधर जायेगा। योग साधना और ध्यान से ऐसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति स्वचालित ढंग से परिणाम तथा दृश्यों का अवलोकन करता है। अतः वह ऐसे लोगों से दूर हो जाता है जिनके भविष्य में सुधरने की आशा नहीं होती। जब हमारा कोई कार्य सफल नहीं होता तब हम भाग्य को दोष देते हैं जबकि हमें उस समय अपने दोषों और त्रुटियों पर विचार करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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