Sunday, December 25, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जिस कार्य में निंदा की संभावना हो उसे न करें (kautilya ka arthshastra-jis karya mein ninda ki sanbhawana ho vah n karen)

             आवेश, निराशा, काम और लोभवश कोई काम करना कभी ठीक नहीं है। कार्य करने के परिणामों पर विचार किये बिना उनको प्रारंभ करना जीवन के लिये अत्यंत भयावह प्रमाणित होता है। आजकल आधुनिक प्रचार युग में विज्ञापन की अत्यंत महत्ता है। वस्तुओं और सेवाओं के विज्ञापन तो प्रत्यक्ष दिखते हैं पर विचारों के विज्ञापन किस तरह फिल्म, धारावाहिकों तथा विशेष अवसरों पर बहसों या चर्चाओं के माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं। इस तरह के विज्ञापन धार्मिक क्षेत्र में अधिक देखे जाते हैं जहां विशेष स्थानों, व्यक्तियों या समूहों की प्रशंसा इस तरह की जाती है जैसे कि उनसे जुड़ने पर संसार में अधिक लाभ होगा। गीत और संगीत से मोहित कर लोगों के धर्म से जोड़ा जाता है ताकि वह वर्तमान समय में मौजूद धर्म समूहों से बंधकर अपनी जेब ढीली करते रहें। इसमें फंसने वाले मनुष्यो के हाथ कुछ नहीं आता है। देखा जाये तो सभी धर्मों में कर्मकांड इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनको अलग देखना कठिन है। इन कर्मकांडों से बाज़ार का लाभ होता है न कि आम इंसान में धार्मिक शुद्धि होती है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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तदात्वायसिंशुद्ध शुचि शुद्धकमागतम्।
हितानुबन्धि च सदा कर्म सद्धिः प्रशस्यते।।
             ‘‘जो वर्तमान और भविष्य में शुद्ध हो तथा शुद्ध कर्म से प्राप्त होने वाला फल की दृष्टि से हितकर है बुद्धिमान लोग उसे करना ही श्रेष्ठ समझते हैं।’’
हितानुबन्धि यत्कार्य गच्छेद्येन न वाच्यातम्।
तस्मिन्कर्माणि सज्जेत तदात्व कटुकेऽपि हि।।
          ‘‘हित करने वाला जो हितकारी कार्य है वह उसे ही कहा जा सकता है जिसे करने पर कहीं किसी प्रकार की निंदा नहीं होती। हमेशा ऐसे ही कार्य को प्रारंभ करें चाहे वह वर्तमान में किसी भी प्रकार का लगे।’’
             देखा तो यह गया है कि अनेक लोग काम, लोभ और लालच में आकर अपना धर्म त्याग कर दूसरे की राह पर चलना प्रारंभ कर देते हैं। उनको मालुम नहीं कि यह बाद में अत्यंत कष्टकारी होता है। बचपन से साथ चले संस्कारों का साथ छोड़ना कठिन होता है। हमने यह देखा होगा कि हमारे देश में बाज़ार ने अपने उत्पाद बेचने के लिये अनेक तरह के त्यौहारों का जन्म दिया है। इतना ही जन्म दिन जैसी परंपरा का भी विकास किया है जो कि भारत के प्राचीन संस्कारों का भाग नहीं है। बाज़ार के प्रायोजित प्रचार में फंसे आम भारतीय ऐसे दुष्प्रचार में आसानी से फंस जाते हैं।
               मुख्य बात यह है कि हमें अपने विवेक के अनुसार काम करना चाहिए। किसी दूसरे के कहने में आकर ऐसा काम नहीं करना चाहिए जो कालांतर में निंदा के साथ ही आत्मग्लानि का कारण बने। लोगों को आनंद खरीदने के लिये प्रचार माध्यम प्रेरित करते हैं। आम आदमी उसके प्रभाव में उस पर खर्चीली राह परचलने लगते हैं। इधर उधर दौड़ते हैं फिर थकहारकर मोर की की तरह अपने पांव देखकर विलाप करते हैं। सुख की अनुभूति के लिये ध्यान के अलावा अन्य कोई क्रिया है इस पर ज्ञानी लोग यकीन करते हैं। मुश्किल यह है कि अंतर्मन में सुख की अनुभूति का प्रचार करना बाज़ार की प्रचार शैली का भाग नहीं है जबकि आजकल प्रचार देखकर ही लोग अपना मार्ग चुनते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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