Saturday, December 31, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपनी शक्ति के अनुरूप कार्य का विचार करें (kautilya ka arthshastra-apni shakti ke anurup kam karen)

              किसी काम करने की सोचना और अपनी वाणी से उसे करने का दावा करना अत्यंत सहज है पर उसका निष्पादन करना तभी संभव है जब अपने सामर्थ्य के अनुरूप हो। आजकल फिल्म, टीवी तथा पत्र पत्रिकाओं में विज्ञापनों का ऐसा प्रभाव है कि लोग उसमें बहक जाते हैं। तमाम तरह के ऐसे ख्वाब देखते हैं जिनका पूरा कर सकना उनकी सामाजिक, आर्थिक तथा व्यक्तिगत स्तर की सीमित क्षमता के कारण संभव नहीं हो सकता। इतना ही नहीं अनेक बार अपने सामर्थ्य से बड़ा लक्ष्य निर्धारित करने पर लोग अपने सारे आर्थिक संसाधन और शारीरिक ऊर्जा बर्बाद कर देते हैं पर उनके हाथ कुछ नहीं आता जिसकी वजह से उनको भारी मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
---------------------
शक्याशक्यपद्धिविछेदं कुर्याद्बुद्धया प्रसन्नया।
केवलं दन्तभङ्गायदन्तिनः शैलताडनम्।।
            ‘‘अपनी शुद्ध बुद्धि के तय करें कि कौनसा कार्य करना अपनी शक्ति के अनसार है या नहंी। इस तरह का विचार किये बिना कोई काम करना ऐसा ही है जैसे कि हाथी पर्वत पर प्रहार कर अपने केवल दांत ही तोड़ता है।’’
अशक्यारम्भवृत्तीनां कुतः क्लेशादृते फलम्।
भविन्त परितापिन्यो व्यक्तं कर्मविपतयः।।
       ‘‘अपनी शक्ति या सामर्थ्य से बाहर कार्य करने पर सिवाय क्लेश के कुछ हाथ नहीं आता। अपने कर्म से बुलाई गई आपत्ति व्यक्ति के लिये अत्यंत दुःखदायी होती है।’’
           फिल्म, टीवी और समाचार पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से जिस आधुनिक संसार को आम जनमानस के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है वह केवल धन की शक्ति से बना है। जिनके पास धन है उनकी शक्ति का प्रचार इस तरह किया जा रहा है कि लोग उनकी भक्ति करने लगते हैं। किसी धनपति की संपदा के उद्गम स्त्रोत पवित्र हैं या नहीं इसकी जानकारी कभी नहीं मिलती। यही कारण है कि समाज में अपराध के प्रति युवाओं का आकर्षण बढ़ रहा है। बुरे काम का बुरा नतीजा जब सामने आता है तब लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है। लोग आत्ममंथन नहीं करते। बस जैसा बाहर देखते हैं वैसा ही अंदर होने की इच्छा पालते हैं। अगर हम आजकल व्याप्त तनाव का अध्ययन करें तो यही सोच उसके लिये जिम्मेदार दिखाई देती है।
---------------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, December 29, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-दुष्ट लोगों के लिये संसार में कोई गुणी आदमी नहीं (bhritrihari neeti shatka-dushta logon ke liye duniya mein koyee gunee nahin)

            सामान्य मनुष्य पर उसकी संगति का प्रभाव अवश्य होता है। जो लोग चाहते हैं कि उनके अंदर कुविचार न आये, उनकी समाज में छवि सज्जन व्यक्ति की बने और उनके समक्ष कभी संकट न आये वह केवल इतना करें कि अपनी संगत पर ध्यान दें। ऐसे लोगों की संगत करें जिनसे मिलने पर प्रसन्नता होती हो। जो दुख देने वाले, निंदा करने वाले या असंतुलित मस्तिष्क के हैं उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। दुष्ट लोगों की संगत इतनी बुरी है कि वह शर्मदार को डरपोक, धर्मभीरु को पाखंडी, सत्यवादियों को कपटी और वीर को क्रूर बताते हैं। इन दुष्टों में बस एक ही गुण होता है दूसरों की निंदा करना। इतना ही नहीं न ऐसे लोगों से संगत करना चाहिए न ही इनकी संगत में रहने वाले के पास जाना चाहिए।
इस विषय में महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि
-----------------------
जाङ्यं ह्नीमति गणयते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे तत्को नाम गुणो भवेत् गुणिनां यो दुर्जनैनाकितः।।
         ‘‘दुष्ट संकोचशील पुरुषों में जड़ता, धर्मभीरुओं में पाखंड, सत्य धर्म में स्थित रहने वालों में कपट, वीरों में क्रूरता, विद्वानों में मूर्खता, नम्र लोगों में दीनता, प्रभावशालियों में अहंकार, अच्छे वक्तओं में बकवास तथा धीर गंभीर रहने वालों में असमर्थता का दुर्गुण होने का बयान करते हैं। ऐसा कौनसा गुणी आदमी है जिसमें दुष्ट लोग दोष नहीं ढूंढते।’’
              ऐसे दुष्टों की बात पर ध्यान देने से अपना ही मन खराब करना है। हम अच्छे है या बुरे इसकी पहचान हमें स्वयं ही कर सकते हैं। सीधी बात यह है कि हमारे मन में किसी के प्रति बुरा विचार नहीं आना चाहिए। दूसरा व्यक्ति अच्छा है या बुरा इसकी पहचान यह है कि भला आदमी कभी किसी निंदा नहीं करता। सज्जन आदमी हमेशा दूसरों के गुणों की प्रशंसा करता है। इतना ही नहीं दुष्ट व्यक्ति की पहचान होने पर उससे संबंध बनाये रखना ठीक नहीं है। यह सोचना बेकार है कि नियमित संबंध बनाये रखने में क्या दोष? दरअसल ऐसे दुष्ट व्यक्ति सामने कुछ न कहें पर पीठ पीछे अपने साथ का दोष बयान करने से बाज नहीं आते। अपनी छवि बनाने के लिये यह दूसरे की छवि खराब करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, December 25, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जिस कार्य में निंदा की संभावना हो उसे न करें (kautilya ka arthshastra-jis karya mein ninda ki sanbhawana ho vah n karen)

             आवेश, निराशा, काम और लोभवश कोई काम करना कभी ठीक नहीं है। कार्य करने के परिणामों पर विचार किये बिना उनको प्रारंभ करना जीवन के लिये अत्यंत भयावह प्रमाणित होता है। आजकल आधुनिक प्रचार युग में विज्ञापन की अत्यंत महत्ता है। वस्तुओं और सेवाओं के विज्ञापन तो प्रत्यक्ष दिखते हैं पर विचारों के विज्ञापन किस तरह फिल्म, धारावाहिकों तथा विशेष अवसरों पर बहसों या चर्चाओं के माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं। इस तरह के विज्ञापन धार्मिक क्षेत्र में अधिक देखे जाते हैं जहां विशेष स्थानों, व्यक्तियों या समूहों की प्रशंसा इस तरह की जाती है जैसे कि उनसे जुड़ने पर संसार में अधिक लाभ होगा। गीत और संगीत से मोहित कर लोगों के धर्म से जोड़ा जाता है ताकि वह वर्तमान समय में मौजूद धर्म समूहों से बंधकर अपनी जेब ढीली करते रहें। इसमें फंसने वाले मनुष्यो के हाथ कुछ नहीं आता है। देखा जाये तो सभी धर्मों में कर्मकांड इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनको अलग देखना कठिन है। इन कर्मकांडों से बाज़ार का लाभ होता है न कि आम इंसान में धार्मिक शुद्धि होती है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
----------------------
तदात्वायसिंशुद्ध शुचि शुद्धकमागतम्।
हितानुबन्धि च सदा कर्म सद्धिः प्रशस्यते।।
             ‘‘जो वर्तमान और भविष्य में शुद्ध हो तथा शुद्ध कर्म से प्राप्त होने वाला फल की दृष्टि से हितकर है बुद्धिमान लोग उसे करना ही श्रेष्ठ समझते हैं।’’
हितानुबन्धि यत्कार्य गच्छेद्येन न वाच्यातम्।
तस्मिन्कर्माणि सज्जेत तदात्व कटुकेऽपि हि।।
          ‘‘हित करने वाला जो हितकारी कार्य है वह उसे ही कहा जा सकता है जिसे करने पर कहीं किसी प्रकार की निंदा नहीं होती। हमेशा ऐसे ही कार्य को प्रारंभ करें चाहे वह वर्तमान में किसी भी प्रकार का लगे।’’
             देखा तो यह गया है कि अनेक लोग काम, लोभ और लालच में आकर अपना धर्म त्याग कर दूसरे की राह पर चलना प्रारंभ कर देते हैं। उनको मालुम नहीं कि यह बाद में अत्यंत कष्टकारी होता है। बचपन से साथ चले संस्कारों का साथ छोड़ना कठिन होता है। हमने यह देखा होगा कि हमारे देश में बाज़ार ने अपने उत्पाद बेचने के लिये अनेक तरह के त्यौहारों का जन्म दिया है। इतना ही जन्म दिन जैसी परंपरा का भी विकास किया है जो कि भारत के प्राचीन संस्कारों का भाग नहीं है। बाज़ार के प्रायोजित प्रचार में फंसे आम भारतीय ऐसे दुष्प्रचार में आसानी से फंस जाते हैं।
               मुख्य बात यह है कि हमें अपने विवेक के अनुसार काम करना चाहिए। किसी दूसरे के कहने में आकर ऐसा काम नहीं करना चाहिए जो कालांतर में निंदा के साथ ही आत्मग्लानि का कारण बने। लोगों को आनंद खरीदने के लिये प्रचार माध्यम प्रेरित करते हैं। आम आदमी उसके प्रभाव में उस पर खर्चीली राह परचलने लगते हैं। इधर उधर दौड़ते हैं फिर थकहारकर मोर की की तरह अपने पांव देखकर विलाप करते हैं। सुख की अनुभूति के लिये ध्यान के अलावा अन्य कोई क्रिया है इस पर ज्ञानी लोग यकीन करते हैं। मुश्किल यह है कि अंतर्मन में सुख की अनुभूति का प्रचार करना बाज़ार की प्रचार शैली का भाग नहीं है जबकि आजकल प्रचार देखकर ही लोग अपना मार्ग चुनते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, December 23, 2011

रहीम के दोहे-राजा और भिखारी किसी की प्रार्थना और गर्जना नहीं सुनते (raja aur bhikhari kisi ki nahin sunte)

             हर मनुष्य को अपनी पहचान स्वयं विकसित करने के साथ ही परिश्रम से आत्मनिर्भर होने का प्रयास नहीं करना चाहिए। सामान्य लोग यह अपेक्षा करते हैं कि कोई उनकी सहायता करे या फिर जीवन में सफलता के लिये कोई ऐसा मार्ग मिल जाये जिसमें संकट उपस्थित न हो। यह संभव नहीं है। दैहिक जीवन जिस तरह सर्दी, गर्मी, बरसात तथा बसंत के मौसम के दौर से गुजरता है वैसे ही हालत भी कभी संकटपूर्ण तथा कभी खुशी देने वाले होते हैं। बुरे दौर में किसी से याचना करना केवल अपनी पहचान पर संकट लाना ही है। हम यह अपेक्षा करते हैं कि कोई धनाढ्य व्यक्ति हमारी सहायता करे तो वह व्यर्थ है। यह सोचना चाहिए कि अगर धनपति अपने धन को हाथ में पकड़ कर न रखने वाला न हो तो वह धनवान कैसे रह सकता है? यदि वह अपने धन से किसी का संकट मिटा दे तो फिर समाज में धनवान और निर्धन होने का अर्थ क्या रह जायेगा। यह अलग बात है कि कुछ दयालु धनपति दूसरे को दान आदि देकर समाज में संतुलन बनाये रखते हैं पर उनकी संख्या नगण्य होती है।
          उसी तरह हमें अपनी देह का स्वास्थ्य बनाये रखने के लिये जहां भोजन नियमित रूप से करना चाहिए वहीं योग साधना आदि के माध्यम से उसे स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए। यह बात तय है कि जब तक हम अपने शरीर के सहारे में तभी तक सब ठीक है। अगर कहीं उसमें दोष उत्पन्न हुआ तो फिर कोई सहायक नहीं मिल सकता। कोई न हमारी याचना सुनेगा न ही कोई हमसे डरेगा।
वैसे कविवर रहीम कहते हैं कि
--------------
अरज गरज मानैं नहीं, ‘रहिमन ये जन चारि,।
रिनिया, राजा,मांगता, काम आसुरी नारि।।
‘‘कर्जदार, राजा, भिखारी तथा आसुरी प्रवृत्ति वाली नारी यह चार प्रकार के लोग न किसी की प्रार्थना सुनते हैं न किसी गर्जना को मानते हैं।’’
आदर घटै नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।
जो ‘रहीम’ कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं।।
‘‘राजा के निकट रहने से आदर घटने के अलावा अन्य कोई फल नहीं मिलता। यदि भीड़ में शामिल हो जाये तो उसकी अपनी पहचान नहीं रहती। ऐसे में जीवन अपना ही जीवन धिक्कार योग्य लगता है।
प्रातःकाल अपनी देह, मन और विचार के विकार निकालने के बाद हमें इस संसार में जूझने के लिये निकलना चाहिए। जहां तक हो सके सत्संग करें। ऐसे लोगो से संपर्क रखें जो ज्ञानी हों। अपनी एक अलग पहचान हो। किसी की चमचागिरी कर अपना जीवन धन्य समझना एक महान मूर्खता है। प्रयास यह करना चाहिए कि हम किसी की सहायता न करें कि दूसरे पर हमारा काम या लक्ष्य निर्भर हो।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, December 17, 2011

तुलसी के दोहे-अमृत और शराब की कीमत बर्तन से तय नहीं होती (tulsi ke dohe-amrit aur sharab or wine)

             मनुष्य को अपना कर्म करते समय अपने विवेक का ही उपयोग करना चाहिए। अपने जीवन के लक्ष्य तथा उनकी प्राप्ति के साधनों के संग्रह करने के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि वह पवित्र हों। दूसरों को हानि पहुंचाये बिना अपने व्यवसाय या नौकरी करना जीवन के सहजता और सुख दिलाने का एकमात्र उपाय है। यह सही है कि आज के भौतिकवाद युग में काले व्यवसाय और अपराध से पैसा कमाना आसान लगता है पर अंततः उसके दुष्परिणाम भोगने वालों से यह सबक लेना चाहिए कि केवल दौलतमंद होना ही पर्याप्त नहीं वरन् चरित्रवान भी हों तो बेहतर है।
             मनुष्य के गुण ही उसे समाज में सम्मान दिलाते हैं। दुर्गुणी व्यक्ति को धनवान, पदवान या बाहुबली होने के कारण कोई सामने बुरा न कहे पर पीठ पीछे लोग अपनी भड़ास निकालते हैं। दुष्ट लोग अपनी छवि को लेकर भले ही भ्रम में रहें पर गुणवान अपनी प्रतिष्ठा की चिंता किये बिना अपने सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
इस विषय में संत कवि तुलसीदास कहते हैं कि
----------------
मनि भाजन मधु पारई, पूरन अभी निहारि।
का छांड़िअ का संग्रहिअ, कहहु बिबेक बिचारि।।
             ‘‘शराब और अमृत की कीमत और पहचान उसके बर्तन से नहीं वरन् गुण से है। शराब का पात्र मणि का और अमृत का पात्र मिट्टी का बना हो तो आप विवेक से विचार कर बताईये किसका त्याग करेंगे।’’
सुजन कहत भल पोच पथ, पापि न परखइ भेद।
करमनास सुरसरित मिस, बिधि निषेध बद बेद।।
              सज्जन लोग अच्छे और बुरे काम की पहचान करने की योग्यता करते हैं जबकि दुष्ट लोग इस तरफ ध्यान नहीं देते।’’
सज्जन और सद्भाव रखने वाला व्यक्ति भले ही निर्धन हो पर लोग उसका सम्मान करते हैं जबकि दुष्ट और क्रूर व्यक्ति कितना भी बड़ा क्यों न हो उसके लिये सभी के मन मे घृण होती है। समय समय पर अपने चरित्र और व्यवहार का आत्ममंथन करते हुए अपना जीवन सावधानी के साथ बिताना आज के संघर्षपूर्ण युग में बहुत आवश्यक है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, December 14, 2011

दादू दयाल दोहावली-मनुष्य के पहचान करने का गुण नहीं होता (dadudayal dohawali-mansuhya ki pahachan shakti kam)

          इस संसार में ऐसे ज्ञानी और ध्यानी लोगों की कमी नहीं है जो अपने सांसरिक ज्ञान को बघारते हुए नहीं थकते। इतना ही नहीं धर्म के नाम कर्मकांडों का महत्व इस तरह किया जाता है कि मानो उनको करने से स्वर्ग मिल जाता है। क्षणिक लाभ और मनोरंजन के लिये लोग अपने संबंध बनाते हैं। उनको ऐसा लगता है कि इससे उनका जीवन आराम से कट जायेगा पर इसके विपरीत ऐसे ही संबंध बाद में बोझ बन जाते हैं।
             आजकल हमारे यहां प्रेम विवाहों का प्रचलन अधिक हो गया है। देखा यह जाता है कि अंततः लड़कियों को ही अपने परिवार से वेदना अधिक मिलती है। एक तो उनके परिजन उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं और अपनी मर्जी से विवाह करने का आरोप लगाकर संपर्क नहीं रखते दूसरे पति के परिजन भी दहेज आदि न मिलने के कारण उनको बहू रूप में ऐसे स्वीकारते हैं जैसे कि मजबूरी हो। फिर परिवार आदि में खटपट तो होती है साथ ही चाहे लड़की नौकरीशुदा हो या नहीं उससे अपेक्षा यह की जाती है कि वह घर का काम करे। ऐसे में जिन लड़कियों ने प्रेम विवाह किया होते हैं उनको वही लड़के संकट देते हैं जिन्हें उन्होंने प्रेमवश सर्वस्व न्यौछावर किया होता है।
संत कवि दादू दयाल कहते हैं कि
--------------------
झूठा साचा करि लिया, विष अमृत जाना।
दुख कौ सुख सब कोइ कहै, ऐसा जगत दिवाना।।
            ‘‘मनुष्य को सत्य असत्य, विष अमृत और दुःख सुख की पहचान ही नहीं है। लोगों का दीवाना पन ऐसा है दुख देने वाली वस्तुओं और व्यक्तियों से सुख मिलने की आशा करते हैं।
               
इस तरह दीवानापन लड़कों में भी देखा जाता है। वह लड़कियों के बाह्य रूप देखकर बहक जाते हैं पर जब घर चलाने का अवसर उपस्थित होता है तब पता चलता है कि जीवन उतना सहज नहीं है जितना उन्होंने समझा था। जिस इश्क को उर्दू शायर गाकर थकते नहीं है वही एक दिन नफरत का कारण बन जाता है। आई लव यू कहने वाले फिर आई हेट यू कहने लगते हैं।
        तत्वज्ञानियों को पता है कि यहां हर देहधारी वस्तु अंततः पुरातन अवस्था में आती है। हम अपने मुख से करेला खायें या मिठाई पेट में अंततः वह कचड़ा ही हो जाता है। हम शराब पियें या शरबत पेट में वह विषाक्त जल में परिवर्तित होता है जिसके जिसके निष्कासन पर ही हमारी देह ठंडी होती है। इस ज्ञान को बुढ़ापे में धारण करने अच्छा है कि बचपन में धारण किया जाये तभी संसार के उन संकटों से बचा जा सकता है जो अज्ञान के कारण हमारे सामने उपस्थित होते हैं। कभी कभी तो उनकी वजह से देह का नाश भी होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, December 10, 2011

दादू दयाल दोहावली-शिष्य पर प्रभाव न हो तो गुरु क्या कर लेगा (dadu dayal dohawali or dohavali-guru aur shishya)

          हम यह कहते हैं कि आज समय खराब आ गया है पर जब प्राचीन कवियों और संतों की रचनाओं का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि हमारे समाज में पाखंडी और ढोंगियों की कभी वर्तमान में क्या प्राचीन काल में भी कमी नहीं रही। इसका कारण यह है कि हमारे अध्यात्मिक ज्ञान और दर्शन में गजब का प्रभाव है। उसमें सकाम तथा निष्काम भक्ति को समान मान्यता दी गयी है। साकार तथा निराकार भक्ति के आपसी विरोध की बजाय सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया गया है। हालांकि निराकार परमात्मा के साथ ही निष्काम भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है पर सकाम तथा साकार भक्ति का प्रचार अधिक होता है। कथित गुरु हमारे अवतारों की कहानियों के आड़ में मनोरंजन करते हैं। अनेक सत्संग तो फिल्मी ढंग से मनोरंजन, दुःख, खुशी तथा नृत्य के साथ गीत संगीत के शोरशराबे के साथ मिश्रित रस बिखेरने वाले होते हैं। अनेक लोग तो प्रमाद भी करते हुए हास्य का भाव भी भरना उसी तरह नही भूलते जैसे कि फिल्म में एक मजाकिया पात्र रखा जाता है। उस समय यह बात ध्यान में नहीं रखी जाती है कि अध्यात्मिक चर्चा अत्यंत शांति से हृदय में एकाग्रता के भाव से लाभदायक होती है। सत्संगों में संगीत और गीत के माध्यम से भक्तों को बहलाया जाता है। हम व्यवसायिक संतों को ढोंगी या पाखंडी न भी माने पर इतना तय है कि उनका लक्ष्य भारतीय अध्यात्म दर्शन की आड़ में आत्मप्रचार करना ही होता है। अधिकतर धार्मिक स्थानों पर गीत संगीत बजता है जबकि भक्ति या साधना के लिये शांत वातावरण होना आवश्यक है।
निर्गुण भक्ति के उपासक कवि दादू दयाल कहते हैं कि
---------------
झूठे अंधे गुर घणें, भरम दिढावै।
‘दादू’ साचा गुर मिलैं, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ।।
        ‘‘अंधे गुरुओं की संख्या बहुत ज्यादा होती है जो लोगों को भ्रम में डालते हैं। इस संसार में अगर सच्चा गुरु मिल जाये तो समझ लो साक्षात् ईश्वर के दर्शन हो गये।’’
‘दादू’ वैद बिचारा क्या करै, जै रोगी रहैं न साच।
मीठा खारा चरपरा, मांगै मेरा वाछ।।
           ‘‘वेद शास्त्रों का ज्ञान क्या कर सकता है जब उसका अध्ययन करने वाले में धारणा शक्ति का अभाव है। उस रोगी का क्या इलाज हो सकता है जो सावधानी नहीं बरतता। अगर रोगी मीठा, खारा, चटपटा खाना चाहता है तो कोई औषधि उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती।
            व्यवसायिक संतों के प्रवचनों का प्रभाव भी क्षणिक रहता है। लोग तीर्थ स्थानों या गुरुओं के आश्रमों पर पर्यटन करने की दृष्टि से जाते हैं। उनका लक्ष्य भक्ति से अधिक मन बहलाना होता है। स्थान परिवर्तन से मन को ताजगी का यह भाव कहीं भी भक्ति का प्रतीक नहीं है। ऐसे में अगर कुछ सत्य मार्ग का संदेश तो उसका प्रभाव नहीं रहता। यही कारण है कि हम विश्व में जैसे जैसे संचार के क्षेत्र में आधुनिक साधनों का उपयोग होते देख रहे हैं वैसे वैसे भारतीय अध्यात्मिक की चर्चा अधिक हो रही है। कभी कभी तो यह लगता है कि जैसे पूरा देश ही धर्मवादी हो रहा है पर यह सच नहीं है। लोगों की भीड़ धार्मिक चर्चाओं में व्यस्त दिखती है पर उनमें उस अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है जो जीवन को सहज बनाता है।
-----------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, December 3, 2011

मलूकदास के दोहे-सुदंर शरीर देखकर बहको मत (malukdas ke dohe-sundar sharir dekhkar bahako mat)

           हमारे अध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार इस संसार में समस्त दृश्यव्य वस्तुऐं नश्वर हैं। बाकी की बात क्या करें यह प्रथ्वी, सूर्य, चंद्रमा और अन्य ग्रह भी नश्वर माने गये हैं। आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि प्रथ्वी और इस पर विचरण करने वाले समस्त जीवों के साथ ही अन्य ग्रहों का भी एक जीवन है जो अंततः नष्ट होता है। अमेरिकन वैज्ञानिकों ने तो एक ब्लैकहोल का पता भी लगाया है जो प्रतिदिन सैंकड़ों तारों को लील जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि यहां कुछ भी स्थिर नहीं है।
            इस संसार में विचरण करने वाले समस्त प्राणियों की देह भले ही बाहर से आकर्षण लगती है पर अगर उसे आधुनिक सूक्ष्म यंत्रों से देखा जाये तो अंदर का ढांचा अत्यंत गंदगी भरा रहता है। वहां हड्डियां, रक्त, कीचड, और मांस के टुकड़ों के साथ कीड़े मकौड़े रैंगते दिखाई देते हैं। कम से कम अंदर का दृश्य दर्शनीय नहीं होता। इतना ही नहीं समय के अनुसार सभी की देह पतन की तरफ बढ़ती जाती है। इसके बावजूद अनेक लोग सुंदर देह के अनेक दीवाने हैं। कुछ मनुष्यों को अपनी सुंदर देह पर अत्यंत अहंकार भी रहता है। हमारे अध्यात्मिक महर्षि सदैव इस तरफ ध्यान दिलाते रहे हैं कि यह मनुष्य देह जहां नश्वर है वहीं आत्मा अमर है अतः मनुष्य को योग ध्यान तथा जाप से स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
मलूकदास कहते हैं कि
----------------------
सुंदर देही देखि कै, उपजत है अनुराग।
मढ़ी न होती चाम की, तो जीवन खाते काम।।
          ‘‘मनुष्य का स्वभाव है कि वह किसी भी सुंदर शरीर को देखकर उससे प्रीति करने को लालाचित होने लगता है जबकि इसमें मांस, खून और हड्डी भरे हुए हैं। अगर इस कचड़े के ऊपर यह देह न हों तो कौऐ इसे जीते जी खाने लगें।
सुंदर देही पाइ कै, मत कोइ करै गुमान।
काल दरेरा खायगा, क्या बूढ़ा क्या जवान।।
            ‘‘सुंदर शरीर पाकर किसी को इतरना नहीं चाहिए। आदमी बूढ़ा हो या जवान काल किसी को भी खा सकता है।’’
         हम देख रहे हैं कि हमारे देश में आधुनिक शिक्षा तथा मनोरंजन के साधनों की वजह से पूरा समाज अपने अध्यात्मिक ज्ञान को भूलकर माया तथा सौंदर्य के पीछे भाग रहा है। ऐसा लगता है कि लोगों ने अक्ल के द्वारा बंद कर दिये हैं। ऐसे में भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर दृष्टिपात करते है तो लगता है कि अज्ञानियों का झुंड चहुं ओर फैला है। स्थिति यह है कि स्त्रियों के नग्न चित्रों को देखने के लिये लोग मरे जा रहे हैं। जिन लोगों को तत्वज्ञान है वह ऐसी स्थिति में हंसते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


इस लेखक की लोकप्रिय पत्रिकायें

आप इस ब्लॉग की कापी नहीं कर सकते

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

विशिष्ट पत्रिकायें

Blog Archive

stat counter

Labels