कार्यस्य हि गरीबस्त्वात्रोचानामपि कालचित्।
सतोऽपि दोषान् गुणानप्यसतो वदेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-अपने कार्य के लिये आवश्यकता पड़ने पर समय को जानने वाला मनुष्य निम्न प्रवृत्ति के मनुष्य के अवगुणों को छिपाकर उसके असत् गुणों का वर्णन करे। चाहे भले ही उसमें अनेक दोष हों पर अपने स्वार्थ की वजह से केवल उसके गुणों का ही वर्णन करे।
सतोऽपि दोषान् गुणानप्यसतो वदेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-अपने कार्य के लिये आवश्यकता पड़ने पर समय को जानने वाला मनुष्य निम्न प्रवृत्ति के मनुष्य के अवगुणों को छिपाकर उसके असत् गुणों का वर्णन करे। चाहे भले ही उसमें अनेक दोष हों पर अपने स्वार्थ की वजह से केवल उसके गुणों का ही वर्णन करे।
प्रायो मित्राणि कुर्वीत सर्वावस्थानि भूपतिः।
बहुमित्रो हिं शक्तोति वशे स्यापयितः रिपून्।।
हिन्दी में भावार्थ-प्रायः राजा लोग अपने लिये मित्र ही बनाते हैं। बहुत मित्रों वाला ही शत्रु को अपने वश में रख सकता है।
बहुमित्रो हिं शक्तोति वशे स्यापयितः रिपून्।।
हिन्दी में भावार्थ-प्रायः राजा लोग अपने लिये मित्र ही बनाते हैं। बहुत मित्रों वाला ही शत्रु को अपने वश में रख सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर मनुष्य को अपने जीवन की रक्षा के लिये चतुर तो होना ही चाहिये। अधिकतर लोग होते भी हैं पर इसके बावजूद अनेक मनुष्यों में दूरदृष्टि का अभाव होता है। अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये हर मनुष्य चतुराई दिखाता है पर दीर्घकालीन समय के लिये वही मनुष्य योजना बना सकता है जो ज्ञानी हो। सच्चा ज्ञानी वही है जो किसी की कभी निंदा नहीं करता बल्कि दूसरे के गुणों का ही वर्णन करता है। इसके उसे दो लाभ होते हैं एक तो वह अपने लिये मित्र अधिक बनाता है और दूसरा यह कि काम पड़ने पर उसका सभी लोग सहयोग करते हैं। कुछ लोग अहंकार वश अपनी ही हानि करते हैं। वह काम पड़ने पर भी किसी व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करते उल्टे उसके दुुर्गुणों का बखान करते हैं इससे उनका बनता काम बिगड़ जाता है।
आदमी को ज्ञानी और परोपकारी होना चाहिये पर यह अपेक्षा अन्य लोगों से नहीं करना चाहिये। कोई दूसरा प्रशंसा न करे तब भी ज्ञानी उसका काम कर देते हैं पर अपना काम दूसरे में फंसे तो उसके दोषों की चर्चा न कर उसकी प्रशंसा कर अपना हित साधने का काम उनको भी करना चाहिये। इसमें कोई दोष नहीं है। इसे ज्ञान कहें या चतुराई यह एक अलग विचार का विषय है। हां, अपने अंदर यह गुण अवश्य रखना चाहिये कि कोई प्रशंसा भले ही न करे या अपने मुख से संकोच होने पर भी काम न कहे तब भी उसका हित बिना प्रयोजन के पूरा करना चाहिये। यह ज्ञानी मनुष्य की पहचान है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग अधिक से अधिक मित्र बनाकर सुरक्षित हो जाते हैं।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://anant-shabd.blogspot.com
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