Sunday, May 30, 2010

विदुर नीति-दुष्टों को अनदेखा करने से जनता नाराज होती है

साहसे वर्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः।
सः विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि राज्य प्रमुख  दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा या उसे अनदेखा करता है तो उसका अतिशीघ्र विनाश हो जाता है क्योंकि तब प्रजा में उसके विद्वेष की भावना पैदा होती है।


न मित्रकारणाद्राजा विपुलाद्वाधनागमात्।
समुत्सुजोत्साहसिकान्सर्वभुतभयावहान्।।
हिन्दी में भावार्थ-
राज्य प्रमुख को चाहिये कि वह स्नेह या लालच मिलने पर भी प्रजा में भय उत्पन्न करने वाले अपराधियों को क्षमा न करे। 


वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्षमा जीवन का मूलमंत्र है पर एक परिवार, समाज और राज्य के मुखिया को कहीं न कहीं अपने आश्रितों को बचाने के लिये दंड का उपयोग करना ही पड़ता है।  अगर वह इस दंड का उपयोग नहीं करेगा तो उसके आश्रित या प्रजाजन उसे कायर मानकर घृणा करने लगते हैं।  कहा जाता है कि योगियों को क्षमाक्षील होना चाहिये पर हमारी प्राचीन कथायें इस बात का प्रमाण हैं कि समय आने पर वही कोमल भाव वाले योगी अपने भक्तों और शिष्यों के लिये उग्र रूप धारण करते हुए अपराधियों को दंडित करते हैं। 
जिस परिवार, समाज या राज्य का मुखिया  अपराधियों और हिंसक तत्वों को क्षमा करता है या उनकी अनदेखी में भलाई समझता है वह शीघ्र नष्ट हो जाता है। उसके समूह या राज्य के विरोधी उसके आश्रित या प्रजा को लक्ष्य नहीं करते बल्कि उनका लक्ष्य मुखिया ही होता है।  फिर उसके विरोधी आंतरिक विरोधियों को सबसे पहले मैदान में उतारते हैं इसलिये समझदार मुखिया को चाहिये कि वह अंतर्विरोधियों का समूल नाश करे।
ऐसे आंतरिक शत्रु जो प्रजा में भय करते हुए विचरते हैं उनकी अनदेखी करना खतरे से खाली नहीं है।  जिस परिवार, समाज, या राज्य का प्रमुख अपने आंतरिक खतरों की अनदेखी करता है वह कायर मान लिया जाता है और उसके आश्रित प्रजाजन ही उसका सम्मान नहीं करते। अहिंसा का सिद्धात केवल अपने निजी जीवन में लागू किया जा सकता है पर जहां सार्वजनिक विषय हो वहां दंड का उपयोग करना चाहिये अन्यथा परिवार, समाज तथा राज्य में असंतोष का परिणाम मुखिया को भोगना पड़ता है। राज्य या परिवार में उत्पाती तत्वों से सख्ती से निपटना ही एक सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 

 

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Saturday, May 29, 2010

रहीम सन्देश-पानी के बिना मनुष्य, मोती और अनाज का अभ्युदय नहीं हो सकता

कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून

 आशय यह है  पानी को बचा कर रखें क्योंकि पानी बिना सब सून। पानी अगर न रहा तो मोती, मनुष्य और अनाज किसी का उद्धार नहीं हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-जिनके पास पानी की अभाव है वह तड़प रहे हैं पर जिनके पास है वह भी फैलाने में लगे हैं। अपनी कारों और मोटर साइकिलों को ऐसे ही रोज नहलाते हैं जैसे कि वह गाय या बैल हों। लोग पानी को ऐसे फैलाये जा रहे हैं जैसे कभी खत्म नहीं होगा। यह आश्चर्य की बात है कि आज कई जगह जल बचाने के लिऐ आंदोलन चल रहे हैं।
जबकि रहीम जी का यह दोहा तो सैंकड़ों बरसों से इस देश में प्रचलित है और लोग इसे अक्सर अपना ज्ञान बघारने के लिये सुनाते हैं। सच बात तो यह है कि ज्ञान सुनना अलग बात है और उसे धारण करना अलग बात है। इस देश में संत हो या आम आदमी सभी लोग ज्ञान और ध्यान की किताबें पढ़-पढ़कर उसका लिखा एक दूसरे को सुनाते हैं पर धारण कोई नहीं करता। अगर धारण करने वाले लोग होते तो आज इस तरह पानी के लिये बेहाल नहीं होते। समस्या यह नहीं है कि जल की कमी है बल्कि बढ़ते शहरीकरण के कारण उसके स्त्रोतों में कमी आयी है पर उपयोगिता की मात्रा बढ़ गयी है। आजकल कूलरों में पानी डालने के अलावा अपने वाहनों को साफ करने पर भी उसका अपव्यय होता है। ऐसे में इतना तो हो ही सकता है कि गर्मियों में लोग पानी फैलाने का काम न करें पर शायद ही कोई यह बात माने।
एक बात ध्यान रखें के पश्चिमी भू वैज्ञानिक मानते हैं कि भारत में भू जल स्तर अन्य देशों से बहुत अच्छा है। इसे भगवान की कृपा ही समझना चाहिए और इसका उपयोग प्रसाद की तरह थोडा करें। आजकल जल बचाना भी एक दान पुण्य का काम समझना चाहिए।
 
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Thursday, May 27, 2010

रहीम दर्शन-छोटा आदमी कम महत्वपूर्ण नहीं होता

कविवर रहीम कहते है कि
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रीति प्रीति सबसों भली, बैर न हित मित गोत
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत
इस जीवन में सबसे प्रेम से पेश आओ। न किसी से बैर करो न अपने मित्र और गौत्र से हित की चाह करो। यह मनुष्य जीवन फिर मिलेगा कि नहीं कहना कठिन है।
छोटेन सों साहैं बंड़े, कहि रहीम यह लेख
सहसन का हय बांधियत, लै दमरी की मेख
कविवर रहीम कहते हैं कि छोटा आदमी भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता। समय छोटे को कभी कभी महत्वपूर्ण बना देता है। हजारों में मोल वाली गाय भैंस और घोड़े को जिस खूंटे में बांधा जाता है वह सस्ता मिलता है, पर वह अपने से कीमती पशु को बाँधने के काम आते है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय   व्याख्या-जब कमीज में बटन नहीं होता तो उसे पहनने में संकोच होता है और उसे टांकने के लिये घर में हम सुई ढूंढते हैं। होता यह है कि एक कमीज को बटन टांगने के लिये सुई लाते हैं और फिर उसे कहीं लापरवाही से रख देते हैं। सस्ती होती है तो परवाह नहीं करते पर वक्त पर वह भी काम आती है। ऐसे ही लोगों की मनोवृत्ति होती है कि छोटे आदमी की परवाह नहीं करता जबकि संजय पड़ने पर वही काम आते हैं।  जब संकट पड़ता है तो बड़ा आदमी काम कि व्यस्तता या बीमारी का बहाना कर इनकार कर देता है और उससे कुछ कहा भी नहीं जाता जबकि छोटा आदमी सदाशयता से काम कर देता है।
वैसे अगर थोड़ा चिंतन करें तो अनेक मौके पर छोटे आदमी ही काम करते हैं। ऐसा हो सकता है कि हमारी मित्रता और संपर्क बड़े लोगों से हैं पर क्या हम अपना कोई काम उनको सामने कह सकते हैं। घर में कोई कार्यक्रम है तो हम अपने से अमीर और बड़े रिश्तेदार से काम नहीं कह पाते जबकि छोटे और गरीब रिश्तेदार से कह सकते हैं। इस सत्य को जाने की बावजूद कुछ लोग अनावश्यक रूप से बड़े लोगों को सम्मान देते हुए  छोटे की उपेक्षा कर देते हैं।
इतना ही नहीं आपने देखा होगा कि अनेक जगह नौकरों द्वारा मालिक के प्रति अपराध के समाचार आते हैं होता यह है कि या तो कभी वह मालिक के रवैये से क्षुब्ध होकर अपराध करते हैं या फिर मालिक नौकर से यह सोचकर लापरवाह हो जाते हैं कि यह क्या कर लेगा। दोनों ही स्थितियों से बचने का एक ही रास्ता है वह यह कि हम समदर्शी हो जायें। इससे एक लोग हमसे नाराज नहीं होंगे और सतर्कता का भाव भी पैदा होगा। चुभ जाये तो कांटा भी भारी तकलीफ देता है और काम आये तो सुई भी काम आती है-यह ध्यान हमेशा रखना चाहिए। अहंकारवश छोटे आदमी का अपमान करना कभी भी उचित नहीं माना जा सकता। 
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Friday, May 21, 2010

भर्तृहरि नीति शतर्क-मणि होने के बावजूद विषधर से कोई प्रेम नहीं करता




भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
            हिंदी में भावार्थ-जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्द्ध  में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।
दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
     हिंदी में भावार्थ-कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो  तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।
            वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-सज्जन व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्द्ध  में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है। पड़ौस तथा कार्यस्थलों में हमारा संपर्क अनेक ऐसे लोगों से होता है जिनके प्रति हमारे हृदय में क्षणिक आत्मीय भाव पैदा हो जाता है। वह भी हमसे बहुत स्नेह करते हैं पर यह यह संपर्क नियमित संपर्क के कारण मौजूद हैं।  उन कारणों के परे होते ही-जैसे पड़ौस छोड़ गये या कार्य का स्थान बदल दिया तो-उनसे मानसिक रूप से दूरी पैदा हो जाती है।  इस तरह यह बदलने वाली मित्रता वास्तव में सत्य नहीं होती। मित्र तो वह है जो दैहिक रूप से दूर होते भी हमें स्मरण करता है और हम भी उसे नहीं भूलते। इतना ही नहीं समय पड़ने पर उनसे सहारे का आसरा मिलने की संभावना रहती है।  अतः स्थितियों का आंकलन कर ही किसी को मित्र मानकर उससे आशा करना चाहिये।जहां तक हो सके दुष्ट और स्वार्थी लोगों से मित्रता नहीं करना चाहिये जो कि कालांतर में घातक होती है।
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Thursday, May 20, 2010

संत कबीर दास के दोहे-प्रेम की फसल किसी खेत में नहीं होती (sant kabir das ke dohe-khet men prem nahin ugta)

यह तो घर है प्रेम का, ऊंचा अधिक इकंत
शीश काटि पग तर धरै, तब पैठ कोई संत
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम का घर तो ऊंचे स्थान और एकांत में स्थित होता है जब कोई इसमें त्याग की भावना रखता है तभी वहां तक कोई पहुंच सकता है। ऐसा तो कोई संत ही हो सकता है।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट विकाय
राजा परजा जो रुचे, शीश देय ले जाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि किसी खेत में प्रेम की फसल नहीं होती न किसी बाजार में यह मिलता है। जिसे प्रेम पाना है उसे अपने अंदर त्याग की भावना रखनी चाहिए और इसमें प्राणोत्सर्ग करने को भी तैयार रहना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-लोग कहते हैं कि ‘अमुक से प्रेम करते हैं’ या ‘अमुक हमसे प्रेम करता है’। यह वास्तव में बहुत बड़ा भ्रम हैं। सच देखा जाये तो अपने जिनके साथ हमारे स्वार्थों के संबंध हैं उनसे हमारा प्रेम तो केवल दिखावा है। प्रेम न तो किसी को दिखाने की चीज है न बताने की। वह तो एकांत में अनुभव करने वाली चीज है। ध्यान लगाकर उस परमपिता परमात्मा का स्मरण करें तब इस बात का आभास होगा कि वास्तव में उसने प्रेम के वशीभूत होकर ही यह हमें मानव जीवन दिया है। उसका हमारे प्रति निष्काम प्रेमभाव है जो हमारे जीवन का रास्ता सहज बनाये देता है। जब हम इसी निष्काम भाव से उसका स्मरण करेंगे तब पता लगेगा कि वास्तव में प्रेम क्या है? जो लोग एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव का दिखावा करते हैं व न केवल स्वयं भ्रमित होते है बल्कि दूसरे को भी भ्रमित करते हैं। सच बात तो यह है कि आजकल समाज में जिस प्रेम की चर्चा की जाती है वह केवल मनुष्य की वासनाओं से उपजा एक क्षणिक भाव है। सच्चा प्रेम तो निरंकार परमात्मा को किया जा सकता है।  परमात्मा प्रेम का सच्चा रूप है। जो इंसान परमात्मा से प्रेम करते हुए उसकी भक्ति करता है वही सभी से प्रेंम कर सकता है।  जो केवल मनुष्य से प्रेम करते हैं वह संकीर्णता से घिर जाते हैं और उनका लक्ष्य केवल अपना स्वार्थ तथा कामना की पूर्ति करना होता है।
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Wednesday, May 19, 2010

संत कबीर के दोहे-परिवार पालने का दावा कर खुद को धोखा देते हैं (parivar palna-hindi sandesh)

कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
संता शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन को हंस भी कहा जाता है पर उसे कोई उड़ने दे  तभी उसे  समझा जा सकता है। हर कोई अपने विचार और लक्ष्यों का दायरा संकीर्ण कर लेता है। अपने और परिवार के हित के आगे उसे कुछ नहीं सूझता। कई लोग मन में शांति न होने की बात कहते हैं पर उसके पाने लिये कोई यत्न नहीं करते। मन एकरसता से ऊब जाता है। स्वार्थ सिद्धि में डूबा मन   एकरसता से ऊब जाता है पर बुद्धि परमार्थ के लिए प्रेरित नहीं होती। अगर थोड़ा परमार्थ भी कर लें तो एक सुख का अनुभव होता है। परमार्थ का यह आशय कतई नहीं है कि अपना सर्वस्व लुटा दें बल्कि हम किसी सुपात्र व्यक्ति की सहायता करने के साथ  किसी बेबस का सहारा बने। वैसे लुटाने को लोग लाखों लुटा रहे हैं। अपने परिवार के नाम प्याऊ या किसी मंदिर में बैच या पंखा लगवाकर उस पर अपने परिवार का परिचय अंकित करवा देते हैं और स्वयं ही दानी होने का प्रमाणपत्र ग्रहण करते हैं। इससे मन को शांति नहीं मिलती। दूसरों से दिखावा कर सकते हो पर अपने आप से वह संभव नहीं है। हम हर जगह अपने कुल की परिवार की प्रतिष्ठा लिये घूमते हैं पर अपनी आत्मा से कभी परिचित नहीं होते। इसके लिये जरूरी है कि समय निकालकर भक्ति और संत्संग के कार्यों में बिना किसी दिखावे के निष्काम भाव से सम्मिलित हों। कामना के साथ दान या भक्ति करने से मन को कभी शांति नहीं मिलती। उस पर अगर कुल प्रतिष्ठा किए रक्षा का विचार में में आ जाए तो फिर मनुष्य अपना जीवन ही नारकीय हो जाता है।  दूसरी बात यह ही कि इस संसार का पालनहार तो परमात्मा है तब हम अपने परिवार को पालने का दावा कर सवयं को धोखा देते हैं । 
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Tuesday, May 18, 2010

संत कबीर के दोहे-शब्द का महत्व चुंबक के समान

सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहे, कछु न लोहा लेय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो शब्द सुनकर कुछ सीखता और उस पर विचार करता है उसे वह सुख प्रदान करते हैं। बिना सोचे समझे ग्रहण कर बोलने वाला व्यक्ति कोई लाभ नहीं ले पाता।
यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द का महत्व तो चुम्बक के समान है जो आदमी को अपनी आकर्षित करता है। बिना शब्द के कोई भी अपने जीवन में उबर नहीं सकता चाहे जितने भी उपाय कर ले।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कई बार कुछ लोगों को देखकर हमें यह लगता होगा कि कि अधिक बोल जाते हैं। कई बार यह अनुभव भी होता है कि वह कुछ कार्यों को समय रहते सीख नहीं पाये। यह अनुभव हमें अपने बारे में भी होता है। मनुष्य का एक दूसरे से संपर्क वार्तालाप को माध्यम से होता है और आजकल अंतर्जाल पर संपर्क होता है तो शब्द लिखकर भी संपर्क होता है। शब्द बोला जाय या लिखा जाये उसमें आकर्षण होता है। इन पंक्तियों का लेखक अंतर्जाल पर लिखता है और कई बार दूसरे का लिखा ही दिल को ऐसा छू जाता है जैसे उसने बोला हो। कई लोग ऐसे भी है जो दुःख पहुंचाने वाले शब्द लिखते हैं। ऐसे लोग अज्ञान के अंधेरे में होते हैं। वह सोचते हैं कि इस तरह शब्द लिखने या कहने से किसी पर कोई प्रभाव नहीं होता या हम अपने मन की भडास निकाल लें दूसरे पर उसका जो प्रभाव होता है उसकी हम चिंता क्यों करें? यह ऐसे लोग होते हैं जो जिनको जीवन का ज्ञान देने वाला गुरू नहीं मिला होता या फिर उन्होने उसके ज्ञान को गंभीरता से ग्रहण नहीं किया होता।
कई बार लोग एक दूसरे के लिए पीठ पीछे अभद्र शब्द का करते हुए निंदा करते हैं सोचते हैं कि कौन वह सुन रहा है या जाकर उससे कहेगा। यह सच भी होता है पर ऐसा कर वह अपने मन और देह को भी भारी कष्ट देते हैं। अपना खून जलाते हैं। इस संसार में वाणी के महत्व को अनेक विद्वान बताते हैं। सच बात तो यह है कि यही वाणी आदमी को छाया दिलाता है तो धूप में सड़ने को बाध्य भी करती है। जो लोग शब्द के महत्व को समझते हैं वह कभी भी किसी के साथ कटुवाणी का प्रयोग नहीं करते और लोकप्रियता भी उनको ही मिलती है। अतः विद्वानों के गुणों और अज्ञानियों की कमियों से हमें सीख लेना चाहिये ताकि जीवन कष्टमुक्त रह सके।
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Sunday, May 16, 2010

मनु स्मृति-दिल में बैठे देवता की अनदेखी न करें (dil ka devata-hindu dharma sandesh)

साक्ष्येऽनृतं वदन्याशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम्।
विवशः शमाजातीस्तरस्मात्साक्ष्यं वदेदृतम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
झूठी गवाही देने वाले मनुष्य, वरुण देवता के पाशों से बंधकर सैंकड़ों वर्षों तक जलोदर बीमारियों से ग्रसित जीवन गुजारता है। अतः हमेशा किसी के पक्ष में सच्ची गवाही ही देना चाहिये।
द्यौर्भूमिरापो हृदयं चंद्रर्काग्नि यमानिलाः।
रात्रिः सन्ध्ये च धर्मख्च वृत्तजाः सर्वदेहिनाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनु महाराज के अनुसार आकाश, पृथ्वी, पानी, हृदय, चंद्र, सूर्य, अग्नि, यम, वायु, रात संध्या और धर्म सभी प्राणियों के सत् असत् कर्मों को देखते हैं। इनको देवता ही समझना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्या हम सोचते हैं कि हम कोई भी काम कर रहे हैं तो दूसरा कोई उसे नहीं देख रहा? ऐसी गलती कभी न पालें। इस धरा पर ऐसे कई जीव विचरण कर रहे हैं जिनको हम नहीं देख पाते पर वह हमें देख रहे हैं। दूसरों की छोड़िये अपने अंदर के हृदय को ही कहां देख पाते हैं। यह हृदय भी देवता है पर उसे कहां समझ पाते हैं? वह लालायित रहता है धर्म और परोपकार का कार्य करने के लिये पर मनुष्य मन तो हमेशा अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर विचरण करता है। एक नहीं अनेक बार झूठ बोलते हैं। दूसरों की निंदा करने के लिये प्रवृत्त होने पर उसके लिये ऐसे किस्से गढ़ते हैं कि जो हम स्वयं जानते हैं कि वह सरासर झूठ है। मगर बोलते हैं यह मानते हुए कि कोई देख नहीं रहा है। उस समय हम अपने अन्दर बैठे आत्मा रुपी देवता को धोखा देते हैं।
आदमी एक के बाद एक झूठ बोलकर किसी के न देख पाने का भ्रम पालकर स्वयं को धोखा देता है। इस संसार  मने  चंद्रमा, सूर्य नारायण, प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के साथ हमारा हृदय देवता सब देख रहा है। समय आने पर यह देवता दंड भी देते हैं। अतः कोई भी अच्छा काम करते हुए इस बात की चिंता नहीं करना चाहिये कि कोई उसे देख नहीं रहा तो क्या?  उसका सुफल मिलेगा। उसी तरह  बुरा कर्म करते हुए इस बात से लापरवाह भी न हों कि कौन देख रहा है जो सजा मिलेगी?
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Saturday, May 15, 2010

संत कबीर दर्शन-बाहर का दरवाजा बंद कर, अन्दर का खोलो (andar ka darvaja kholo-kabir darshan)

भारत के महान संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं-
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सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछु न बोल
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल
 मन का एकाग्र और वाणी पर नियंत्रण करते हुए परमात्मा का स्मरण करो। आपनी बाह्य इंदियों के द्वार बंद कर अंदर के द्वार खोलो।
वर्त्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-इससे पता चलता है कि कबीरदास जी ध्यान की चरम स्थिति प्राप्त कर चुके थे और यही उनकी भक्ति और शक्ति का निर्माण करता था। भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ रूप भी ध्यान ही है। अक्सर लोग कहते हैं कि हमारा ध्यान नहीं लगता या थोड़ी देर लगता है फिर भटक जाता है। दरअसल हम लोग शोरशराबे से भक्ति करने के आदी हो जाते हैं इसलिये यह सब होता है। इसके अलावा ध्यान के लिये गुरू की आवश्यकता होती है वह मिलते नहीं है। अधिकतर गुरू सकाम भक्ति के लिए प्रेरित कर केवल अपने प्रति लोगों का आकर्षण बनाये रखना चाहते हैं।
ध्यान लगाना सरल भी है और कठिन भी। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारे मन और विचारों पर हमारा नियंत्रण कितना है। इस संसार के दो मार्ग हैं। एक सत्य का दूसरा माया का। हमारा मन माया के प्रति इतना आकर्षित रहता है कि उसे वहां से हटाने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। अगर हमने तय कर लिया कि हमें ध्यान लगाना ही है तो दुनियां की कोई ताकत उसे लगने से रोक नहीं सकती और अगर संशय है तो कोई गुरू उसे लगवा नहीं सकता।
ध्यान के लिए यह जरूरी है कि पहले हम अपने मन में यह सकल्प लें कि हम उसके द्वारा अपना मन, बुद्धि और विचार शुद्ध करेंगे। यह संकल्प कर  कहीं शांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाईये और आंखें बंद कर शरीर को ढीला छोड़ दें। अपने हृदय में चक्रधारी देव की कल्पना कर उसे पर अपनी दृष्टि रखें। अपना पूरा ध्यान नाक के बीच में भृकुटि पर ही रखें। दुनियां के विचार आयें तो  आने दीजिये उनसे विचलित होने कि आवश्यकत नहीं है । साधक को अपने इस संकल्प पर दृढ रहना चाहिए   कि मुझे ध्यान लगाना है। जो विचार आते हैं उनके बारे में चिंतित होने की बजाय यह सोचिये कि वह आपके जीवन के जो घटनाक्रम आपने देखे और अनुभव किये हैं उनसे उत्पन्न विकार है जो वहां भस्म हो रहे हैं। जिस तरह हम कोई पदार्थ मुख से ग्रहण करते हैं पर शरीर में वह गंदगी के रूप में बदल जाता है। हम मुख से करेला उदरस्थ  या  क्रीमरोल उसका हश्र एक जैसा ही होता है। हम काढ़ा पियें या शर्बत वह भी कीचड़ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यही हाल आखों से देखे गये अच्छे बुरे दृश्य और कानों से सुने गये प्रिय और कटु स्वर का भी होता है। उसके विकार हम देख नहीं पाते पर वह हमारी देह में होते है और उसको वहां से निकालने के लिये ध्यान ब्रह्मास्त्र का काम करता है। जब ध्यान लगाते हैं और जो विचार हमारे दिमाग में आते हैं उनके बारे में यह समझना चाहिए कि वह हमारे अन्दर कि  विकार हैं जो वहां भस्म होने आ रहे हैं और हमारा मन शुद्ध हो रहा है। धीरे-धीरे हमारी बाह्य इंद्रियों के द्वार ध्यान के कारण स्वतः बंद होने लगेंगे। बस अपने अंदर दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
एक बात याद रखें ध्यान कि शक्ति अपार है और इसे हिंदू धर्मं की ताकत माना जाता है। धर्मं की रक्षा ध्यान के ही की जा सकती है, तलवार या बम से नहीं। बिना ध्यान कि मनुष्य के ज्ञान चक्षु नहीं खुल सकते यह तय है।
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Friday, May 14, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-दूसरों का मुंह ताकने से कोई लाभ नहीं

किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रघ्वस्ता तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।
वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रस्भमपगतप्रश्रयाणां खलानां
दुःखाप्तसवल्पवित्तस्मय पवनवशान्नर्तितभ्रुलतानि ।।
हिंदी में भावार्थ- वन और पर्वतों पर क्या फल और अन्य खाद्य सामग्री नष्ट हो गयी है या पहाड़ों से निकलने वाले पानी के झरने बहना बंद हो गये हैं? क्या वृक्षों से रस वाले फलों की शाखायें नहीं रहीं हैं। उनसे तो तन ढंकने के लिये वल्कल वस्त्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसा क्या कारण है कि गरीब लोग उन अहंकारी और दुष्ट लोगों की और मुख ताकते हैं जिन्होंनें थोड़ा धन अर्जित कर लिया हैं।
वर्तमान संदर्भ में संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-यह तो प्रकृति का ही कुछ रहस्य है कि माया सभी के पास समान नहीं रहती। जन्म तो सभी एक तरह से लेते हैं पर माया के आधार पर ही गरीब और अमीर का श्रेणी तय होती है। वैसे प्रकृति ने इतना सभी कुछ बनाया है कि आदमी अगर आग न भी जलाये तो भी उसका    पेट भरने का काम चल जाये। तमाम तरह के रसीले फल पेड़ पर लगते हैं पहाड़ों से निकलने वाले झरने पानी देते हैं पर मनुष्य का मन भटकता है केवल उन भौतिक पदार्थों में जो न खाने के काम आते हैं न पीने के। सोना चांदी रुपया और तमाम तरह के अन्य पदार्थ वह संग्रह करता है जो केवल मन के तात्कालिक संतोष के लिये होते हैं। जिनके पास थोड़ा धन आ जाता है गरीब आदमी उसकी तरफ ही ताकता है कि काश इतना धन मुझे भी प्राप्त होता। या वह इस प्रयास में रहता है कि उस धनी से उसका संपर्क बना जाये ताकि समाज में उसका सम्मान बने भले ही उससे कोई आर्थिक लाभ न हो-जरूरत पड़ने पर सहायता की भी आशा वह करता है।
ऐसे विचार हमारे अज्ञान का परिचायक होते हैं। हमें इस प्रकृति की तरफ देखना चाहिये जिसने इतना सब बनाया है कि कोई आदमी दूसरे की सहायता न करे तो भी उसका काम चल जाये। ऐसे में धनिक लोगों की तरफ मूंह ताक कर अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये। 
कागज के बने नोट या सोने, चांदी तथा हीरे मोती का संग्रह करने वाले अमीर जरूर कहलाते हैं पर इनसे पेट नहीं भरता। पेट भरने तथा तन ढंकने के लिये तो प्रकृति द्वारा उत्पन्न पदार्थ ही आवश्यक होते हैं।  अगर मनुष्य अपना पेट भरने में स्वयं सक्षम हैं तो वह सबसे बड़ा अमीर है उसे किसी का मुंह ताकने की आवश्यकता नहीं है।  इसके अलावा जो अपनी आवश्यकताऐं सीमित रखते हैं वह स्वतंत्र रूप से रह पाते हैं जहां किसी ने अपनी चादर से पांव बाहर निकाला वहां दूसरे से ऋण लेकर उसका गुलाम बनना पड़ता।  
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Thursday, May 13, 2010

रहीम संदेश-जहां छल की संभावना हो वहां से दूर रहें

कविवर रहीम कहते हैं कि
रहिमन वहां न आइए, जहां कपट को हेत
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत
वहां कतई न जाईये जहां कपट होने की संभावना है। रात भर ढेंकली कोई किसान चलाता रहे पर कोई कपटी उसके खेत का पानी अपनी खेत की तरफ कर ले ऐसा भी होता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-छलकपट तो पहले भी था पर अब तो आधुनिक तरीके आ गये हैं और इस तरह छलकपट होता है कि कई बार पता भी नहीं चलता कि हमने क्या और क्यों गंवाया? पहले तो आमने-सामने ही कपट होता था पर अब तो मोबाइल और इंटरनेट के आने से तो वह व्यक्ति हमारी आंखों के सामने भी नहीं होता जो हमें ठगता है। खासतौर से उन युवक और युवतियों को सजग रहना चाहिए जो अपने लिये जीवन साथी ढूंढते है। यहाँ  तो इतना झूठ बोला जा सकता है कि जिसे पकड़ना संभव ही नहीं है। कोई छद्म नाम रखकर, किसी बड़े परिवार से संबंध बताकर या अपने को बहुत व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत कर धोखा देना बहुत आसान है। इसीलिये कपट से बचने के लिए जितना हो सके सावधानीपूर्वक अपने संबंध बनाने चाहिए। नई तकनीकी ने आजकल धोखे के नये तरीकों को जन्म दिया है जिससे यह आसान हो गया है कि न नाम का पता चले न शहर की जानकारी हो और किसी से भी धोखे का शिकार जाये।
आजकल मोबाईल और इंटरनेट का ज़माना है। इस पर शादी तथा व्यवसाय को लेकर अनेक तरह की धोखेबाजी हो सकती है। ऐसी घटनायें भी सामने आयी हैं कि किसी लड़के ने लड़की को अपना गलत परिचय देकर मित्रता कायम की फिर उसे विवाह का प्रस्ताव दिया। लड़की ने स्वीकार कर लिया और विवाह भी हो गया और बाद में पता चला कि उसके साथाधोखा हुआ है। ऐसे भी प्रकरण आये हैं कि किसी लड़के ने लड़की से पहले घनिष्ट संपर्क बनाया और फिर उसे एक निर्धारित स्थान पर बुलाकर उसके साथ बदतमीजी की।
इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि सतर्कता बरती जाये और भले ही इंटरनेट और मोबाईल पर संपर्क हो जाये पर यकीन किसी पर आसानी से नहीं करना चाहिये।
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Wednesday, May 12, 2010

चाणक्य दर्शन-धैये हो तो धनाभाव संकट नहीं बनता (dhiraj hi dhan hai-chankya neeti)

दरिद्रता श्रीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीतया विराजते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।
अधमा धनमिच्छन्ति मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।
धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। ऐसे ही सज्जन पुरुष समाज में सभी लोगों द्वारा सम्मानित होते हैं।
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Tuesday, May 11, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-राजाओं को कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
     हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है? हमारी अभिलाषाओं  और आकांक्षाओं  की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में अधिक धन, बड़ा पद तथा प्रतिष्ठत छवि  पाने की लालसा स्वाभाविक रूप से होती  है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई होती  है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और आशा भरी दृष्टि स ताकते हुए  उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगों  को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल होता है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देते हैं तो केवल चाटुकारिता  के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर। इस संसार में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर उसके मद में डूबने से बच पाते हैं।  अधिकतर लोग तो अपनी शक्ति के अहंकार में अपने से छोटे आदमी को कीड़े मकौड़े जैसा समझने लगते हैं और उनकी चमचागिरी करने पर भी कोई लाभ नहीं होता।  अगर ऐसे लोगों की निंरतर सेवा की जाये तो भी सामान्य से कम प्रतिफल मिलता है।
      सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।इस संसार में प्रसन्नता से जीने का एक ही उपाय है कि अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए ही जीवन भर चलते रहें।  अपने से बड़े आदमी की चाटुकारिता से लाभ की आशा करना अपने लिये निराशा पैदा करना है।
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Monday, May 10, 2010

संत कबीर के दोहे-कपटी कभी साधु नहीं बनते (kapti kabhi sadhu nahin hote-kabir ke dohe)

चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावैं हंस
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पडे काल के फंस
संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि जो लोग चाल तो बगुले की चलते हैं और अपने आपको हंस कहलाते हैं, भला ज्ञान के मोती कैसे चुन सकते हैं? वह तो काल के फंदे में ही फंसे रह जायेंगे। जो छल-कपट में लगे रहते हैं और जिनका खान-पान और रहन-सहन सात्विक नहीं है वह भला साधू रूपी हंस कैसे हो सकते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में कुछ लोग अपनी बौद्धिक चालाकियों से दौलत, शौहरत और ऊंचे ओहदे का लक्ष्य प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग तमाम तरह की किताबें पढ़कर उसमें लिखी बातें रट लेते हैं। उसके बाद सामान्य लोगों में उनका बखान करते हैं गोया कि कोई बहुत बड़े ज्ञानी हों पर सच तो यह है कि ऐसे लालची, लोभी तथा ढोंगी लोगा सम्मान लायक नहीं होते। मगर आज यह स्थिति है कि आधुनिक शिक्षा से गुलामी की मानसिकता प्राप्त कर चुका समाज अपने अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में जानता नहीं है और वह ऐसे कथित ज्ञानियों के जाल में फंस जाता है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान अध्ययन, पठन तथा श्रवण में अत्यंत मधुर है पर पाश्चात्य जीवन शैली में लिप्त समाज के पास इतना समय नहीं है कि वह अपने पुराने ग्रंथों का अध्ययन करे जिसमें ज्ञान और विज्ञान का भारी खजाना भरा हुआ है। अतः सामान्य लोग कथित ज्ञानियों के मुख से श्रवण कर ही अपना काम चलाते हैं। कथित ज्ञानी केवल मधुर वाणी में उस ज्ञान का बखान करते हैं पर न तो उसका मर्म जानते हैं न उसे धारण करते हैं। समय आने पर उनकी पोल खुलती है पर फिर भी ढोंगियों का रथ नहीं रुकता। ऐसे लोग चाहे कितना भी प्रयास करें पर समाज में वह अधिक समय तक सम्मान प्राप्त नहंी करते। अगर करते भी हैं तो उनके बाद कोई याद यहां नहीं रह जाती।
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Sunday, May 9, 2010

रहीम के दोहे-सीधी चाल से ही किसी का दिल जीता जा सकता (sidhi chal se dil jeeten-rahim ke dohe)

प्रेम पंथ ऐसी कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं
रहिमन मैन-तुरगि बढि, चलियो पावक माहिं
कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम का मार्ग ऐसा दुर्गम हे कि सब लोग इस पर नहीं चल सकते। इसमें वासना के घोड़े पर सवाल होकर आग के बीच से गुजरना होता है।
फरजी सह न ह्म सकै गति टेढ़ी तासीर
रहिमन सीधे चालसौं, प्यादा होत वजीर
कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम में कभी भी टेढ़ी चाल नहीं चली जाती। जिस तरह शतरंज के खेल में पैदल सीधी चलकर वजीर बन जाता है वैसे ही अगर किसी व्यक्ति से सीधा और सरल व्यवहार किया जाये तो उसका दिल जीता जा सकता है।
आज के संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिस तरह सब जगह प्रेम का गुणगान होता है वह केवल बाजार की ही देन है जो युवक-युवतियों को आकर्षित करने तक ही केंद्रित है। उसे प्रेम में केवल वासना है और कुछ नहीं है। सच्चा प्रेम किसी से कुछ मांगता नहीं है बल्कि उसमें त्याग किया जाता है। सच्चे प्रेम पर चलना हर किसी के बस की बात नहीं है। प्रेम में कुछ पाने का आकर्षण होतो वह प्रेम कहां रह जाता है। सच तो यह है कि लोग प्रेम का दिखावा करते हैं पर उनके मन में लालच और लोभ भरा रहता है। लोग दूसरे का प्यार पाने के लिये चालाकियां करते हैं जो कि एक धोखा होता है।
आजकल हम देख रहे हैं कि प्रेम के नाम पर अनेक लोग धोखे का शिकार हो रहे हैं। दरअसल फिल्म और टीवी चैनलों पर आज के युवक और युवतियों की यौन भावनाओं को भड़काया जा रहा है। अनेक ऐसी बेसिर पैर की कहानियां दिखाई जाती हैं जिनका यथार्थ के धरातल पर कोई आधार नहीं मिलता। केवल शादी तक तक ही लिखी गयी कहानियां गृहस्थी के यथार्थो का विस्तार नहीं दिखाती। इनको देखकर युवक युवतियां प्यार की कल्पना तो करते हैं पर उसके बाद का सच उनके सामने तभी आता है जब वह गल्तियां कर चुके होते हैं।
इतना ही नहीं कई प्रेम कहानियों में तो लड़कों को छल कपट से लड़कियों को अपने प्यार के जाल मेें फंसाते हुए दिखाया जाता है। इन कहानियों के दृश्य देखकर अनेक युवक युवतियां भ्रमित होकर उसी राह पर चलते है। इस तरह के प्रचार को समझने की जरूरत है।
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संकलक, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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Saturday, May 8, 2010

रहीम दर्शन-नदी के तट को पार करने वाला पानी व्यर्थ चला जाता है (rahim ke dohe-nadi aur pani)

जो मरजाद चली सदा, सोई तो ठहराय
जो जल उमगै पारतें, कहे रहीम बहि जाय
कविवर रहीम कहते हैं कि जो सदा से मर्यादा चली आती है, वही स्थिर रहती है। जो पानी नदी के तट को पार करके जाता है वह बेकार हो जाता है।
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाहिं
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं
कविवर रहीम कहते हैं कि बड़े लोगों को कोई छोटा कहता है तो वह छोटे नहीं हो जाते। भगवान श्री कृष्ण जिन्होंने गिरधर पर्वत उठाया उनको कुछ लोग मुरलीधर भी कहते हैं पर इससे उनकी मर्यादा कम नहीं हो जाती।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कई लोगों को तब बहुत पीड़ा होती है जब कोई उनको छोटा या महत्वहीन बताता है। सच बात तो यह है कि आजकल हर कोई एक-दूसरे को छोटा बताकर अपना महत्व साबित करना चाहता है। ऐसे में कोई व्यक्ति अगर हमको छोटा कहता है या आलोचना करता है तो उसे सहज भाव से ग्रहण करना चाहिए। अपने मन में यह सोचना चाहिए कि जो हम और हमारा कार्य है वह अपने आप हमारा महत्व साबित कर देगा। भौतिक साधनों की उपलब्धता आदमी को बड़ा नही बनाती और उनका अभाव छोटा नहीं बनाती। आजकल के युग में जिसके पास भौतिक साधनों का भंडार है लोग उसे बड़ा कहते है और जिसके पास नहीं है उसे छोटा कहते है। जबकि वास्तविकता यह है कि जो अपने चरित्र में दृढ़ रहते हुए मर्यादित जीवन व्यतीत करता है वही व्यक्ति बड़ा है। इसलिये अगर हम इस कसौटी पर अपने को खरा अनुभव करते हैं तो फिर लोगों की आलोचना को अनसुना कर देना चाहिए।वैसे भी आजकल लोग आत्मप्रशंसा में ही अपनी प्रसन्नता समझते हैं और दूसरे के गुण देखने का न तो उनके पास समय और न ही इच्छा। इसलिये अच्छा काम करने के बाद यह अपेक्षा तो कतई नहीं करना चाहिये कि स्वार्थी, लालची और अहंकार लोग उसकी प्रशंसा करेंगे। कोई भी परोपकार और परमार्थ का काम अपने दिल की तसल्ली के लिये ही करना श्रेयस्कर है क्योंकि इससे ही हमारी आत्मा प्रसन्न होती है।
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Thursday, May 6, 2010

संत कबीर दास के दोहे-गुरु के लिए अधिक संपत्ति जोड़ना खतरनाक (kabir ke dohe-sant aur sanpatti)

माया दासी संत की साकट की शिर ताज
साकुट की सिर मानिनी, संतो सहेली लाज
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि माया तो संतों के लिए दासी की तरह होती है पर अज्ञानियों का ताज बन जाती है। अज्ञानी लोग का माया संचालन करती है जबकि संतों के सामने उसका भाव विनम्र होता है।
गुरू का चेला बीष दे, जो गांठी होय दाम
पूत पिता को मारसी, ये माया के काम
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते है। कि शिष्य अगर गुरू के पास अधिक संपत्ति देखते हैं तो उसे विष देकर मार डालते है। और पुत्र पिता की हत्या तक कर देता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर देखा जाये तो पैसे की औकात केवल जेब तक ही रहती है जबकि अज्ञानी लोग इसे सदैव अपने सिर पर धारण किए रहती है।। वह बात-बात में अपने धनी होने का प्रमाणपत्र लेकर आ जाते हैं। अपनी तमाम प्रकार डींगें  हांकते है। परमार्थ से तो उनका दूर  दूर तक नाता नहीं होता। जो लोग ज्ञानी हैं वह जेब मैं पैसा है यह बात अपने दिमाग में लेकर नहीं घूमते। आवश्यकतानुसार उसमें से पैसा खर्च करते हैं पर उसकी चर्चा अधिक नहीं करते। आजकल जिसके भी घर जाओं वह अपने घर के फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, वीडियो और कंप्यूटर दिखाकर उनका मूल्य बताना नही भूलता और इस तरह प्रदर्शन करता है जैसे कि केवल उसी के पास है अन्य किसी के पास नहीं। कहने का अभिप्राय है कि लोगों के सिर पर माया अपना प्रभाव इस कदर जमाये हुए है कि उनको केवल अपनी भौतिक उपलब्धि ही दिखती है।
लोग आपस में बैठकर अपने धन और आर्थिक उपलब्धियों पर ही चर्चा करते हैं। अगर कोई गौर करे और सही विश्लेषण करे तो लोग नब्बे फीसदी से अधिक केवल पैसे के मामलों पर ही चर्चा करते हैं। अध्यात्म चर्चा और सत्संग तो लोगों के लिए फ़ालतू कि चीज है । इसके विपरीत जो ज्ञानी और सत्संगी हैं वह कभी भी अपनी आर्थिक और भौतिक उपलब्धियों पर अहंकार नहीं करते। न ही अपने अमीर होने का अहसास सभी को कराते हैं।
वैसे जिस तरह आजकल धार्मिक संस्थानों में संपतियों को लेकर विवाद  और मारामारी मची है उसे देखते हुए यह आश्चर्य ही मानना चाहिये कि कबीरदास जी ने भी बहुत पहले ही ऐसा कोई  घटनाक्रम देखा होगा इसलिए ही चेताते हैं कि गुरुओं को अधिक संपति नहीं रखना चाहिये।  आजकल अनेक संत इस सन्देश कि उपेक्षा कर संपति संग्रह में लगे हुए हैं इसलिए ही विवादों में  भी घिरे रहते हैं।
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Tuesday, May 4, 2010

मनु दर्शन-आत्म नियंत्रित कार्य ही करें (atmanilantri kam karen-manu darshan in hindi)

सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो कार्य दूसरे के अधीन है वह दुःखदायी होता है। जिस काम पर अपना पूरी तरह से नियंत्रण हो उसी से ही सुख मिलता है। यही सुख और दुःख का लक्षण है।
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयतनेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा को शांति मिलती हो वही करना चाहिए। जिससे इसके विपरीत स्थिति हो तो उस काम को त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हमारे सामने कोई कार्य उपस्थित होता है तो उसके परिणामों, प्रकृति तथा स्वरूप पर अवश्य विचार करना चाहिए। कभी कोई कार्य दबाव या परप्रेरणा से नहीं करना चाहिऐ। इसके अलावा जो कार्य पूरे या आंशिक रूप से दूसरे पर निर्भर हो उसे अपने हाथ में न लें तो ही अच्छा। क्योंकि तब लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे की गतिविधि पर निर्भर हो जाती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि दूसरा आदमी अगर अंदर ही अंदर द्वेष रखता है तो वह जानबूझकर उस काम का अपना पूरा या आंशिक दायित्व नहीं निभाता तब अपना लक्ष्य या अभियान संकट में पड़ जाता है।
इसके अलावा किसी भी कार्य को करते हुए इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उससे अपने मन और अंतरात्मा को संतोष मिलेगा या नहीं। जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा में क्लेश होता हो उससे करने का विचार ही छोड़ दें तो ही अच्छा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने हाथ से किये जाने वाले कार्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उनके परिणामों को लेकर बाद में पछताना न पड़े। बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी काम को करने से पहले उसके हर पहलू पर विचार कर लेते हैं। बिना विचारे काम करने से उसका परिणाम प्राप्त नहीं होता कहीं कहीं वह बुरा भी निकलता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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