Saturday, March 27, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-काम पर पड़ने पर दुर्जन की भी प्रशंसा करें (kautilya darshan in hindi)

कार्यस्य हि गरीबस्त्वात्रोचानामपि कालचित्।
सतोऽपि दोषान् गुणानप्यसतो वदेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने कार्य के लिये आवश्यकता पड़ने पर समय को जानने वाला मनुष्य निम्न प्रवृत्ति के मनुष्य के अवगुणों को छिपाकर उसके असत् गुणों का वर्णन करे। चाहे भले ही उसमें अनेक दोष हों पर अपने स्वार्थ की वजह से केवल उसके गुणों का ही वर्णन करे।
प्रायो मित्राणि कुर्वीत सर्वावस्थानि भूपतिः।
बहुमित्रो हिं शक्तोति वशे स्यापयितः रिपून्।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रायः राजा लोग अपने लिये मित्र ही बनाते हैं। बहुत मित्रों वाला ही शत्रु को अपने वश में रख सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर मनुष्य को अपने जीवन की रक्षा के लिये चतुर तो होना ही चाहिये। अधिकतर लोग होते भी हैं पर इसके बावजूद अनेक मनुष्यों में दूरदृष्टि का अभाव होता है। अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये हर मनुष्य चतुराई दिखाता है पर दीर्घकालीन समय के लिये वही मनुष्य योजना बना सकता है जो ज्ञानी हो। सच्चा ज्ञानी वही है जो किसी की कभी निंदा नहीं करता बल्कि दूसरे के गुणों का ही वर्णन करता है। इसके उसे दो लाभ होते हैं एक तो वह अपने लिये मित्र अधिक बनाता है और दूसरा यह कि काम पड़ने पर उसका सभी लोग सहयोग करते हैं। कुछ लोग अहंकार वश अपनी ही हानि करते हैं। वह काम पड़ने पर भी किसी व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करते उल्टे उसके दुुर्गुणों का बखान करते हैं इससे उनका बनता काम बिगड़ जाता है।
आदमी को ज्ञानी और परोपकारी होना चाहिये पर यह अपेक्षा अन्य लोगों से नहीं करना चाहिये। कोई दूसरा प्रशंसा न करे तब भी ज्ञानी उसका काम कर देते हैं पर अपना काम दूसरे में फंसे तो उसके दोषों की चर्चा न कर उसकी प्रशंसा कर अपना हित साधने का काम उनको भी करना चाहिये। इसमें कोई दोष नहीं है। इसे ज्ञान कहें या चतुराई यह एक अलग विचार का विषय है। हां, अपने अंदर यह गुण अवश्य रखना चाहिये कि कोई प्रशंसा भले ही न करे या अपने मुख से संकोच होने पर भी काम न कहे तब भी उसका हित बिना प्रयोजन के पूरा करना चाहिये। यह ज्ञानी मनुष्य की पहचान है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग अधिक से अधिक मित्र बनाकर सुरक्षित हो जाते हैं।
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Friday, March 26, 2010

मनुस्मृति-अधर्म का प्रतिकार न करना भी अनुचित (manu smriti in hindi-Dharam & adharm)

यत्र धर्मेह्यहृधर्मेण सत्यं यत्राऽनृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जहां असत्य सत्य को तथा अधर्म धर्म को दबाता है उस सभा में जाने पर सभासद भी नष्ट हो जाता है।
धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते।
शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस सभा में धर्म को अधर्म दबाता है और अन्य लोग उसे नहीं रोकते तो अधर्म का पाप सभी सदासदों को लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां सभा का आशय व्यापक करते हुए पूरे समाज को ही लेना चाहिये। हमारे देश में समस्या इस बात की नहीं है कि दुर्जन अधिक सक्रिय है बल्कि सज्जन लोग डरपोक हैं इसलिये ही इस देश में भ्रष्टाचार और दुराचार बढ़ रहा है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का अध्ययन तथा ब्रिटिश शासन काल में बनाये गये अनेक नियमों का पालन करते हुए हमारा समाज अत्यंत डरपोक हो गया है। अधिकतर लोग यह सोचकर संतोष करते हैं कि हम स्वयं कोई बुरा काम नहीं कर रहे पर उन्हें यह सोचना चाहिये कि यही पर्याप्त नहीं है। अपने सामने कदाचार, दुराचार तथा भ्रष्टाचार होते देखकर उससे मुंह फेरना भी अपराध है। अगर हम ऐसा करते हैं तो वह भी पाप कर्म जैसा है।
देश में व्याप्त बुरी हालत को देखते हुए अनेक लोग बहसें करते हैं पर निष्कर्ष कोई नहीं निकलता। मुख्य बात यह है कि जहां सतर्कता, दृढ़ता और साहस की आवश्यकता है वहां निष्कियता का वातावरण निर्मित कर दिया गया है। सभ्रांत और बुद्धिजीवी देश की हालत पर शाब्दिक शोक ऐसे जताते हैं जैसे कि उनसे कोई उनका प्रत्यक्ष वास्ता ही नहीं है। यह ठीक है कि सारा देश भ्रष्ट, कदाचारी और दुराचारी नहीं है पर यह भी एक तथ्य है कि लोग अपनी तरफ से समस्याओं के प्रतिकार के लिये कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभा रहे जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
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Thursday, March 25, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-जीवन में आत्मबल को होना आवश्यक (jivan aur atmabal-hindu dharma sandesh)

नाऽस्ति मेघसमं तोयं नाऽस्ति चात्मसमं बलम्।
नाऽस्ति चक्षुःसमं तेजो नाऽस्ति धन्यसमं प्रियम।।
हिन्दी में भावार्थ-
बादलों के जल के अलावा कोई दूसरा जल नहीं है। उसी तरह आत्मबल के अलावा कोई दूसरा बल नहीं है। आंख जैसी कोई अन्य शक्तिशाली इंद्रिय नहीं है और अन्न के अलावा अन्य कोई वस्तु प्रिय नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-महाराज भर्तृहरि के इस श्लोक में ज्ञान और विज्ञान दोनों ही तत्व शामिल है। मनुष्य अपनी भौतिक उपलब्धियों के लिये इतनी उछलकूद करता है पर उसकी मूलभूत आवश्यकतायें अत्यंत तुच्छ वस्तुओं से ही पूर्ण होती हैं। तुच्छ इस मायने में कि मनुष्य यही समझता है वरना तो वह वस्तुऐं जीवन का आधार होती हैं। सिख गुरु श्री गोविंद सिंह भी कहते हैं कि आदमी के लिये धन जरूरी चीज है पर उसकी भूख तो दो रोटी में ही शांत होती हैं। उनका अभिप्राय यही है कि धन के लिये इंसान व्यर्थ ही मारामारी करता है जबकि उसके लिये परमात्मा ने आवश्यकता पूर्ति के लिये रोटी का इंतजाम कर दिया है।
मनुष्य अपना सारा जीवन ही धन संपदा जुटाने की भागदौड़ में समाप्त कर देता है और उसे अपने अंदर चरित्र और विचार निर्माण का अवसर ही उसे नहीं मिल पाता। एकांत साधना न करने से मनुष्य आत्मिक रूप से कमजोर हो जाता है जबकि जीवन में सहजता के लिये उसमें आत्मिक बल होना आवश्यक है। यह तभी प्राप्त हो सकता है जब मनुष्य कुछ समय भगवान भक्ति और ध्यान साधना में लगाये। इससे जो आत्मबल मिलता है वह बहुत लाभदायी होता है और फिर ऐसी उपलब्धियां स्वतः प्राप्त होने पर भी तुच्छ लगती हैं जिनको पहले हम बहुत बड़ी समझते हैं।
आजकल लोग अपनी आंखें टीवी पर फोड़ रहे हैं उनको यह आभास ही नहीं है कि यही इंद्रिय हमारी सबसे अधिक शक्तिशाली है और इसके क्षीण होने पर हम शक्तिहीन और निराश्रित हो जाते हैं। इन सब बातों को देखते हुए यही लगता है कि आधुनिक और अमीर दिखने की दौड़े में भागने की बजाय अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में भी रुचि ली जानी चाहिए।
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Tuesday, March 23, 2010

श्री गुरुग्रंथ साहिब-मांगने वालों के पांव न छूऐं

‘गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ।
त के मूलि न लगीअै पाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार कुछ लोग अपने को गुरु और पीर कहते हुए अपने भक्तों से धन आदि की याचना करते हैं ऐसे लोगों के पांव कभी नहीं छूना चाहिये।
‘पर का बुरा न राखहु चीत।
तम कउ दुखु नहीं भाई मीत।
हिन्दी में भावार्थ-
दूसरे के अहित का विचार मन में भी नहीं रखना चाहिये। दूसरे के हित का भाव रखने वाले मनुष्य के पास कभी दुःख नहीं फटकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- महान संत भगवान श्री गुरुनानक देव जी ने अपने समय में देश में व्याप्त अंधविश्वास और रूढ़िवादिता पर जमकर प्रहार कर केवल अध्यात्मिक ज्ञान की स्थापना का प्रयास किया। उनके समकालीन तथा उनके बाद भी अनेक संत और कवियों ने धर्म के नाम पर पाखंड का जमकर प्रतिकार किया पर दुर्भाग्यवश इसके बावजूद भी हमारे देश में अंधविश्वास का अब भी बोलाबाला है। इतना ही अनेक संत कथित रूप से गुरु या पीर बनकर अपने भक्तों का दोहन करते हैं। हैरानी की बात यह है कि आजकल उनके जाल में अनपढ़ या ग्रामीण परिवेश के काम बल्कि शिक्षित लोग अधिक फंसते हैं। आज से सौ वर्ष पूर्व तक तो अंधविश्वास तथा रूढ़िवादिता के लिये देश की अशिक्षा तथा गरीबी को बताया जाता था मगर आजकल तो धनी और शिक्षित वर्ग अधिक जाल में फंसता है और हम जिनको अनपढ़, अनगढ़ और गंवार कहते हैं वही समझदार दिखते हैं।

आधुनिक शिक्षा में अध्यात्मिक ज्ञान को स्थान नहीं मिलता। लोग तकनीकी तथा उच्च शिक्षा को सर्वोपरि मानते हैं पर मन की शांति और अध्यात्मिक ज्ञान के लिये वह ऐसे अनेक ढोंगियों महात्माओं और संतों के जाल में फंस जाते हैं जो खुलेआम पैसा मांगने के साथ ही धर्म का खुलेआम व्यापार करते हैं। आश्चर्य तब होता है जब उच्च शिक्षा प्राप्त और धनीवर्ग उनके चरण स्पर्श करने के लिये भागता नज़र आता है।
जीवन में खुश रहने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि सबके हित की कामना करें। किसी के लिये बुरा विचार मन में न लायें। कभी कभी तो यह भी होता है कि जैसा अब दूसरे के लिये बुरा सोचते हैं वैसा ही अपने साथ ही हो जाता है। अतः सभी के लिये अच्छा सोचा जाये ताकि अपने साथ भी अच्छा हो।
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Wednesday, March 17, 2010

भर्तृहरि शतक- हंसों द्वारा दूध और पानी अलग करने के समान शास्त्रों से ज्ञान का सार ग्रहण करें (ved aur shastra-hindi sandesh)

अनन्तशास्त्रं बहुलाश्चय विद्याः अल्पश्च कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षरमिवाम्बुपमध्यात्
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्र और विद्या अनंत है। शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है। मनुष्य का जीवन संक्षिप्त है। उसके पास समय कम है जबकि जीवन में आने वाली बाधायें बहुत हैं। इसलिये उसे शास्त्रों का सार ग्रहण कर वैसे ही जीवन में आगे बढ़ना चाहिये जसे कि दूध में से हंस पानी को अलग ग्रहण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में जीवन दर्शन का रहस्य और ज्ञान का भंडार समेटे अनेक वेद, पुराण और उपनिषदों के साथ ही अनेक महापुरुषों की पुस्तकें हैं। हमारे देश पर प्रकृति की ऐसी कृपा रही है कि हर काल में एक अनेक महापुरुष एक साथ उपस्थित रहते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में ज्ञान का अपार भंडार भरा पड़ा है पर उसमें कथा और उदाहरणों से विस्तार किया गया है। मूल ज्ञान अत्यंत संक्षिप्त है और उसके निष्कर्ष भी अधिक व्यापक नहीं है। अतः ऐसे बृहद ग्रंथों को पढ़ने में समय लगाना एक सामान्य व्यक्ति के लिये संभव नहीं पर अनेक विद्वानों ने इसमें डुबकी लगाकर इन व्यापक ग्रंथों का सार समय समय पर प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं कुछ विद्वानों ने तो लोगों के हृदय में महापुरुष की उपाधि प्राप्त कर ली।
वैसे वेद, पुराण, और उपनिषदों के साथ अन्य अनेक पावन ग्रंथों का ज्ञान और सार तत्व श्रीमद्भागवत गीता में मिल जाता है। अगर जीवन में शांति और सुख प्राप्त करना है तो उसमें वर्णित ज्ञान को ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है। वैसे प्राचीन ग्रंथों की कथायें और उदाहरण सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं और समय हो तो सत्संग में जाकर उनका भी श्रवण करना अच्छी बात है। जहां समय का अभाव हो वहां श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन अत्यंत फलदायी है। अगर श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण करेंगे तो हंस के समान वैसे ही ज्ञान प्राप्त करेंगे जैसे वह दूध से पानी अलग कर ग्रहण करता है। एक बात निश्चित है कि उसका ज्ञान न तो गूढ़ है न कठिन जैसा कि कहा जाता है। उसे ग्रहण करने के लिये उसे पढ़ते हुए यह संकल्प धारण करना चाहिये कि उस ज्ञान को हम धारण कर जीवन में अपनायेंगे तभी उसे समझा जा सकता है।
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Saturday, March 13, 2010

पतंजलि योग दर्शन-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण हैं (patanjali yoga darshan-teen prakar ke praman)

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं जब किसी कार्य या व्यक्ति को लेकर संशय होता है तथा अनेक बार हम किसी विषय पर विचार करते हुए निर्णायक स्थिति में नहीं पहुंच पाते। दरअसल सोचने का भी एक तरीका होता है। हम अपने कर्म तथा परिणामों में इतना लिप्त होते हैं कि हमें अपने ही द्वारा की जा रही क्रियाओं का ध्यान नहीं रहता। कल्पना करिये हमने किताब अल्मारी से निकालने का प्रयास किया। किताब निकालना एक कर्म है और हम उसे पढ़ना चाहते है यानि कर्ता है। मगर वहां से निकालने का जो प्रयास किया उसे क्रिया कहा जाता है। आप पूछेंगे कि इसमें खास बात क्या है? दरअसल हम जब हाथ अल्मारी की तरफ बढ़ा रहे हैं तो पहले उससे खोलना है, फिर वहां से किताब निकालते हुए इस बात का ध्यान रखना है कि दूसरी किताब वहां से गिर न जाये तथा जो किताब हमने निकली है वह किताब हमारे हाथ से फटे नहीं ताकि उसे हम सुरक्षित अल्मरी में रख सकें। ऐसा तभी हो सकता है जब हमें अपनी क्रियाओं पर ध्यान देने की आदत हो। वरना हम किताब निकालते हुए कहीं दूसरी जगह ध्यान दे रहे हैं तो पता लगा कि किताबा जमीन पर गिर कर फट गयी या फिर दूसरी किताब हाथ में आ गयी। दरअसल यहां बात ध्यान की ही हो रही है जिसका हमारे जीवन में बहुत महत्व है।
जब हम संशयों में होते हैं तब हम निर्णय करने वाले कर्ता है और जिस व्यक्ति या वस्तु पर निर्णय करना है वह एक लक्ष्य है। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति को प्रत्यक्ष देख रहे हैं तो उसके अच्छे या बुरे का निर्णय तुरंत ले सकते हैं। पर यदि कोई वस्तु या व्यक्ति प्रत्यक्ष है पर उसकी क्रिया तथा कर्म की प्रमाणिकता नहीं है तो उस पर अनुमान किया जा सकता है। ऐसे में वस्तु या व्यक्ति का व्यवहार देखकर उसके बारे में निर्णय किया जा सकता है। इसके लिये जरूरी है कि सामने जो प्रत्यक्ष दिख रहा है उसकी क्रियाओं और कर्मों कास विश्लेषण करने के लिये हम अपने ज्ञान चक्षु खोलें और वस्तु या व्यक्ति के व्यवहार को देखकर अनुमान करें। जब हम प्रत्यक्ष कि कियाओं को समझकर निर्णय करते हैं तो वह एक प्रमाण बन जाता है।
उसी तरह कुछ विषयों पर हम निर्णय नहीं ले पाते तो उसके लिये पुस्तकों आदि में पढ़कर निर्णय लेना चाहिये। इसे आगम कहा जाता है। जैसे हम आत्मा को न देख पाते हैं न अनुमान कर पाते हैं तो इसके लिये हमें प्राचीन धर्म ग्रंथों की बातों पर यकीन करना पड़ेगा। इस तरह प्रमाणों की पक्रिया को समझेंगे तो हमें अपने निर्णयों में कठिनाई नहीं आयेगी।
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Thursday, March 11, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-पानी में चंद्रमा के बिम्ब के समान मन होता है चंचल (hindu dharma sandesh-man to chanchal)

सतः शीलोपसम्पन्नानकस्मादेव दुज्र्जनः।
अन्तः प्रविश्य दहति शुष्कवृक्षानिवालः।।
हिन्दी में भावार्थ-
पर्वत के समान दृढ़ चरित्र वाले सत्पुरुषों के अंतःकरण में दुर्जन भाव प्रविष्ट होकर अग्नि के समान उनको जला कर नष्ट कर डालता है। यह भाव सज्जन व्यक्ति के लिये आत्मघाती होता है।
जलान्तश्वन्द्रवशं जीवनं खलु देहिनाम्
तथा विद्यमति ज्ञात्वा शशवत्कल्याणमाचारेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पानी के के भीतर लहलहाते हुए चंद्रमा के बिम्ब के समान चंचल स्वभाव ही समस्त जीवों का जीवन है। यह विचार ज्ञान लोग निरंतर सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समस्त जीवों की देह पंचतत्वों के संयोग से निर्मित होती है और मन उसकी एक ऐसी प्रकृत्ति है जो उसका संचालन करती है। पानी से भी पतले इस मन की चाल विरले ही ज्ञानी देख पाते हैं। अपने जीवन में कार्यरत रहते हुए हमारे मन में अनेक विचार आते हैं-वह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। दरअसल हर जीव को उसका मन चलाता है पर वह यह भ्रम पालता है कि स्वयं चल रहा है। इस मन में काम, क्रोध, लोभ, लालच और घृणा के भाव स्वाभाविक रूप से विचरते रहते हैं। अगर वहां सत्विचारों की स्थापना करनी है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और नाम स्मरण किया जाये। कहना आसान है पर करना कठिन है। मुख्य बात है कि संकल्प मनुष्य किस प्रकार का करता है। जो मनुष्य दृढ चरित्र के होते हैं वह मन में आये विचार का अवलोकन करते हैं और जिनको ज्ञान नहीं है वह उसी राह चलते हैं जहां मन प्रेरित करता है।
यह मन इतना चंचल होता है कि अनेक बार सज्जन आदमी को भी दुर्जन बना देता है। यह उन्हीं सज्जन लोगों के साथ होता है जो स्वाभाविक रूप से भले होते हैं पर उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहता। जब उनके अंदर दुर्जन भाव का प्रवेश होता है तब वह अपराध कर बैठते हैं।
अतः योगाभ्यास तथा सत्संग में निरंतर लगे रहना चाहिये ताकि अपने अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव हो और सज्जन प्रकृत्ति होने के बावजूद कभी किसी भी स्थिति में मन में उत्पन्न कुविचार मार्ग से विचलित न कर सकें।
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Monday, March 8, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विषयों रूपी शत्रु से महात्मा भी विचलित हो जाते हैं

महावाताहृतभ्त्रान्ति मेघमालातिपेलवैः।
कष्टां नाम महात्मानो हियन्ते विषयारिभिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह बादलों का समूह वायु की तीव्र गति से डांवाडोल होता है उसी तरह महात्मा लोग भी विषयरूपी शत्रुओं के प्रहार से विचलित हो ही जाते हैं।
आधिव्याधिविपरीतयं अद्य श्वो वा विनाशिने।
कोहि नाम शरीराय धम्मपितं समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
तमाम तरह के दुःखों से भरे और कल नाश होने वाले इस शरीर के लिये धर्म रहित कार्य केवल कोई मूर्ख आदमी ही कर सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार के विषयों की भी अपनी महिमा है। मनुष्य देह में चाहे सामान्य व्यक्ति हो या योगी इन सांसरिक विषयों के चिंतन से बच नहीं सकते। जैसे ही उनका चिंतन शुरु हुआ नहीं कि आसक्ति घेर लेती है और तब सारा का सारा ज्ञान धरा रह जाता है। सामान्य मनुष्य हो या योगी विषयों से प्रवाहित तीव्र आसक्ति की वायु से उसी तरह डांवाडोल होते हैं जैसे संगठित बादलों का समूह तेज चलती हवा के झौंकों से विचलित हो जाते हैं।
किसी ज्ञान को रटने और धारण करने में अंतर है। यह शरीर नश्वर है तथा अनेक प्रकार के रोगाणु उसमें विराजमान हैं। ऐसे शरीर से अधर्म का काम करना मूर्खता है पर सबसे मुख्य बात यह है कि इस बात को समझते कितने लोग हैं? अनेक लोग धार्मिक संतों का प्रभाव देखकर उन जैसा बनने के लिये शब्द ज्ञान ग्रहण कर उसे दूसरों को सुनाने का अभ्यास करते हैं। जब वह अभ्यास करते हैं तो उनके अंदर यह एक व्यवसायिक गुण निर्मित हो ही जाता है कि वह दूसरे पर अपना प्रभाव कायम कर सकें, मगर ऐसे लोग केवल ज्ञान का बखान करने वाले होते हैं पर उस राह पर कभी चले नहीं होते। नतीजा यह होता है कि कभी न कभी उनको विषय घेर लेते हैं और तब वह इसी नश्वर देह के लिये अधर्म का काम करते हैं। यही कारण है कि अपने देश में बदनाम होने वाले संतों की भी कमी नहीं है।
यह जरूरी नहीं है कि सभी सन्यासी हमेशा ही ज्ञानी हों। उसी तरह यह भी कि सभी गृहस्थ अज्ञानी भी नहीं होते। जो तत्व ज्ञान को समझता है वह चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो, योगियों और सन्यासियों की श्रेणियों में आता है। अपने सांसरिक कार्य करते हुए विषयों में आसक्ति न होना भी एक तरह से सन्यास है।
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Monday, March 1, 2010

मनुस्मृति-ओम शब्द और गायत्री मंत्र के जाप से वेदाध्ययन का लाभ (om shabda and gayatri mantra-manu smriti)

अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहभ्दूर्भूवः स्वारितीतिच।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रजापित ब्रह्माजी ने वेदों से उनके सार तत्व के रूप में निकले अ, उ तथा म् से ओम शब्द की उत्पति की है। ये तीनों भूः, भुवः तथा स्वः लोकों के वाचक हैं। ‘अ‘ प्रथ्वी, ‘उ‘ भूवः लोेक और ‘म् स्वर्ग लोग का भाव प्रदर्शित करता है।
एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्।
सन्ध्ययोर्वेदविविद्वप्रो वेदपुण्येन युज्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य ओंकार मंत्र के साथ गायत्री मंत्र का जाप करता है वह वेदों के अध्ययन का पुण्य प्राप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में गायत्री मंत्र के जाप को अत्यंत्र महत्वपूर्ण बताया गया है। उसी तरह शब्दों का स्वामी ओम को बताया गया है। ओम, तत् और सत् को परमात्मा के नाम का ही पर्याय माना गया है। श्रीगायत्री मंत्र के जाप करने से अनेक लाभ होते हैं। मनु महाराज के अनुसार ओम के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर लेने से ही वेदाध्ययन का लाभ प्राप्त हो जाता है। हमारे यहां अनेक प्रकार के धार्मिक ग्रंथ रचे गये हैं। उनको लेकर अनेक विद्वान आपस में बहस करते हैं। अनेक कथावाचक अपनी सुविधा के अनुसार उनका वाचन करते हैं। अनेक संत कहते हैं कि कथा सुनने से लाभ होता है। इस विचारधारा के अलावा एक अन्य विचाराधारा भी जो परमात्मा के नाम स्मरण में ही मानव कल्याण का भाव देखती है। मगर नाम और स्वरूप के लेकर विविधता है जो कालांतर में विवाद का विषय बन जाती है। अगर श्रीमद्भागवत गीता के संदेश पर विचार करें तो फिर विवाद की गुंजायश नहीं रह जाती। श्रीगीता में चारों वेदों का सार तत्व है। उसमें ओम शब्द और गायत्री मंत्र को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया गया है।
आजकल के संघर्षपूण जीवन में अधिकतर लोगों के पास समय की कमी है। इसलिये लोगों को व्यापक विषयों से सुसज्ज्ति ग्रंथ पढ़ने और समझने का समय नहीं मिलता पर मन की शांति के लिये अध्यात्मिक विषयों में कुछ समय व्यतीत करना आवश्यक है। ऐसे में ओम शब्द के साथ गायत्री मंत्र का जाप कर अपने मन के विकार दूर करने का प्रयास किया जा सकता है। ओम शब्द और श्रीगायत्री मंत्र के उच्चारण के समय अपना ध्यान केवल उन पर ही रखना चाहिये-उनके लाभ के लिये ऐसा करना आवश्यक है।
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