Sunday, February 28, 2010

विदुर नीति-दिन के उजाले में वह काम करें, जिससे रात को नींद अच्छी आये (hindi sandesh-din aur raat)

गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम्।
अथ प्रच्छन्नपापानां शास्तां वैवस्वतौ यमः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने मन और इंद्रियों को वश में करने वाले शिष्यों के शासक उनके गुरु, दुष्टों के शासक राजा और छिपकर पाप करने वालों शासक सूर्य होते हैं।
दिवसेनैव तत् कुर्यातफ येन रात्री सुखं वसेत।
अष्टामासेन तत् कुर्यात् येन वर्षाः सुखं वसेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के अनुसार पूरे दिन वही काम करें जिससे रात्रि को आराम से नींद आ सकें और आठ महीने वह काम करें जिससे चार मास बरसात के आराम से व्यतीत हों।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-रात्रि को चैन से नींद आना ही प्रतिदिन का मोक्ष प्राप्त करना है। जब हम मोक्ष की प्राप्त करते हैं तो वह केवल मृत्यु के बाद का ही विषय नहीं है बल्कि जीवन में रात्रि का पहर भी मोक्ष के रूप में ही व्यतीत होता है जब हम नींद लेकर अपनी देह और मन को अगले दिन के लिये तैयार करते हैं। अनेक बार क्रोध या निराशा आने पर हम अपने व्यवहार में उग्रता लाते हैं जिससे हमारी मुट्ठियां भिंच जाती हैं। उस समय आवेश में आकर हम विचार नहीं करते पर बाद में पछतावा होता है। यह पछतावा इतना होता है कि हमें रात भर नींद नहीं आती। एक बात तय रही कि हम अगर किसी के लिये तनाव पैदा करेंगे तो वह भी यही करेगा और हम शांति से नहीं बैठ सकते।
इसलिये बेहतर यही है कि हमेशा अपना व्यवहार अच्छा रखें, मीठी वाणी बोले तथा समर्थ होने पर दूसरे की मदद कर अपने मित्र बनायें। एक बात याद रखें मुट्ठी बहुत देर तक कोई भी बंद नहीं रख सकता क्योंकि इससे पैदा खिंचाव देह का अस्थिर करता है। इसलिये ही हाथ तो खोलने ही पड़ते हैं ताकि सहजता पैदा हो। जीवन सहजता से जीने का यही उपाय है कि अपने व्यवहार में हमेशा सात्विकता बनाये रखें।
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Saturday, February 27, 2010

वेदांत दर्शन-चंदन के वृक्ष की तरह है आत्मा (bedant darshan-atma aur chandan)

नाणुरतच्छ्रुतेरिति चेन्नेतराधिकारात्।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि हम कहें कि जीवात्मा अणु नहीं है क्योंकि श्रुतियों में उसे महान और व्यापक बताया गया है तो ठीक नहीं लगता क्योंकि संभवतः वहां आशय परमपिता परमात्मा से है।
अविरोधष्चन्नवत्।
हिन्दी में भावार्थ-जिस प्रकार एक क्षेत्र या देश में लगाया हुआ चंदन अपने गंध रूपी गुण को सब ओर फैलाता है वैसे ही आत्मा पूरे शरीर का संचालन करता है तो इसमें विरोध नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आत्मा अजन्मा और अमर है। वह अणु रूप है या नहीं कहना कठिन है। श्रुतियों में उसे महान बताया गया है पर संभवतः उनका आशय परमात्मा से है। आत्मा की तुलना तो चंदन से की जा सकती है। जिस तरह चंदन का वृक्ष अपने सुगंध से पूरे क्षेत्र में फैलाता है वैसे ही आत्मा पूरे शरीर में स्थित रहकर उसका संचालन करता है। इसका आशय यह है कि वह अणु रूप है। श्रीगीता में भी वर्णित है कि जब आत्मा जब अपनी देह से अलग होता है तो वह उस देह से इंद्रियों के गुण भी ले जाता है। वैसे पश्चिम वैज्ञानिकों का यह दावा है कि आत्मा का वजन 21 ग्राम है। उनका आशय यह है कि जब आदमी जीवित रहता है और जब मरता है तब उसके वजन में 21 ग्राम की कमी आती है। कहना कठिन है कि सच क्या है, पर इतना तय है कि उसका अस्तित्व हमारी देह में रहता है। अगर हम उसकी अनदेखी कर अच्छे कर्म नहीं करते तो हमारी इंद्रियां दुर्गुणों का संग्रह करती हैं। वहीं अगर हम अच्छे काम करें तो सद्गुणों का संचय होता है जिनको अंततः आत्मा ग्रहण करता है। शायद इसलिये कहते हैं कि जिसका लोक सुधरता है वही परलोक में भी सुख पाता है।
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Thursday, February 25, 2010

संत कबीर वाणी-प्रसन्नता देने वाले मनुष्य कम ही मिलते हैं

मानुस खोजत मैं फिरा, मानुस बड़ा सुकाल।
जाको देखत दिल घिरे।, ताक पड़ा दुकाल।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने खूब ढूंढा तो मनुष्य बहुत मिले पर ऐसा कोई नहीं दिखा जिसे देखकर मन प्रसन्न हो जाये।
देखा देखी सुर चढ़े, मर्म न जानै कोय।
सांई कारन सीस दे, सूरा जानी सोय।।
कबीरदास जी का कहना है दूसरों की देखा देखी लोग भक्ति तो करने लग जाते हैं पर परमात्मा का नाम धारण कर पूरा जीवन उसे अर्पित कर कर दे, ऐसा कोई बहादुर योद्धा नहीं मिलता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में हर मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगा हुआ है। लोग एक दूसरे के साथ तभी संपर्क करते हैं जब उनका काम पड़ता है। ऐसे में हार्दिक रूप से मित्रता करने वाले तो लोग कम ही मिलते हैं और जिसे मिल जायें वह अपना सौभाग्य समझे। लोग एक दूसरे से मिलते हैं पर उनका व्यवहार औपाचारिकता की सीमाओं में बंधा होता है। आपस में मिलकर कोई एक दूसरे को प्रसन्नता प्रदान करे, ऐसा बहुत कम होता है।
दूसरे को देखकर भक्ति करने का भाव अनेक लोगों में जाग्रत होता है। उनका यह भाव हृदय के शुद्ध विचारों की बजाय केवल दूसरों को दिखाने के कारण प्रवाहित होता है। कुछ लोग तो केवल इसलिये ही भक्ति करते दिखते हैं ताकि उनका प्रचार एक भक्त के रूप में हो। अनेक शिक्षित लोग अध्यात्मिक किताबों से ज्ञान रटकर उसको सुनाने निकल पड़ते हैं ताकि उनको ज्ञानी समझा जाये। ऐसे ही अनेक लोग गुरु के पद पर भी प्रतिष्ठत हो जाते हैं।
दिखावा करने से न तो अपने व्यक्तित्व में निखार आता है न ही हृदय को संतोष मिलता है। इसलिये जब भक्ति करें तो हृदय से करें ताकि मन में निर्मलता का भाव आये। यही निर्मलता का भाव चेहरे पर प्रकट होता है और तब अगर दूसरा व्यक्ति देखता है तो वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता-उसे आपका चेहरा देखकर ही प्रसन्नता होगी।

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Tuesday, February 23, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब से-आदमी अपने कर्म से पीछा नहीं छुड़ा सकता

चित्रगुप्त सभ लिखते लेखा।
भगत जना कउ दृस्टि न पेखा।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य के सारे कर्मों का लेख चित्रगुप्त रखते हैं पर जो भगवान भक्ति में लीन रहते हैं।
देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि, परदारा संग फाकै।
चित्रगुप्तु जब लेखा मागहि, तब कउशु पड़दा तेरा ढाकै।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे हम दरवाजा बंद करके या परदा कर बुरे कर्म करें पर उसका हिसाब चित्रगुप्त महाराज रखते हैं। मनुष्य अपने कर्मों से मरने पर भी पीछा नहीं छुड़ा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के मन में कुछ होता है और वह बोलता कोई दूसरी बात है। देखता कुछ है बताता दूसरे ढंग से है। पाखंड और ढोंग का जीवन जीने की मानव की सहज प्रवृत्ति है। वह दरअसल अपने आप से भागता है पर छिप नहीं पाता। झूठ बोलते हुए मनुष्य यह सोचता है कि उसे कोई नहीं देख रहा है पर वह स्वयं को तो देखता है। इस धरा पर जीवन चलाने वाले उस परमात्मा को किसने देखा है? वह सभी को देखता है। इसलिये अपने कर्म करते समय यह विचार अवश्य करना चाहिये कि उनका लेखा कोई रख रहा है।
झूठ, बेईमानी, भ्रष्टाचार और ठगी का कर्म करने वाले यह सोचते हैं कि उनको कोई नहीं देख रहा है तो उनका वहम है। हर आदमी अपने आपको देख रहा है यानि उसके अंदर परमात्मा का अंश आत्मा भी उसका आभास देता है कि वह कौनसा काम कर रहा है। बुरे काम करने वाले को पता होता है कि वह गलती कर रहा है पर खालीपीली अपने आपको दिलासा देता है कि कोई नहीं देख रहा है।
इस संसार में जहां अच्छे काम का परिणाम मिलता है तो बुरे काम की सजा भी सामने आती है। इतना ही नहीं मनुष्य का कर्म उसके मरने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते। इसलिये अपने अंदर हमेशा ही सात्विक कार्य करने का विचार करना चाहिए।

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Sunday, February 21, 2010

मनुस्मृति-आदमी अपने कर्म के लिये स्वयं ही दायी (men self responsible for his work-hindu dharma sandesh)

एकःप्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुंक्ते सृकृतमेक ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः।।
हिन्दी में भावार्थ-
इस संसार में हर मनुष्य अकेले आता और जाता है। उसे अपने अच्छे और बुरे कर्म का फल भी अकेले ही भुगतना है। यह अकाट्य सत्य है।
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखः बान्धवाः यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
मरे हुए मनुष्य की देह को उसके बंधु लोग मिट्टी का मानकर उसे गाड़ देते हैं या जलती हुई लकड़ियों में छोड़ जाते हैं। उस समय धर्म ही जीव का अनुगमन करता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या -चाहे कोई अपने को कितना भी समझाये पर सच यह है कि जब तक देह है सभी लोग एक दूसरे के आत्मीय बनते हैं पर जैसे ही इसमें से आत्मा निकल गया वैसे ही यह बंधु बान्धवों के लिये यह देह मिट्टी का ढेला हो जाती है। वह इसे गाड़कर या जलती लकड़ियों में छोड़कर मुंह फेर चले जाते हैं। कहने कहा अभिप्राय यह है कि आदमी इस धरती पर अकेला ही है। वह कर्म करते हुए धन संग्रह यह सोचकर करता है कि वह अपने और परिवार का भला कर रहा है? अनेक लोग तो धन के लोभ में कदाचरण करते हुए भी नहीं हिचकिचाते। अपने साथ परिवार, रिश्तेदार और मित्रों के होने की अनुभूति उनके अंदर यह भाव नहीं आने देती कि वह हर प्रकार के अपराध के लिये अकेले ही जिम्मेदार हैं। आपने देखा होगा कि अनेक लोग भ्रष्टाचार, हत्या, तथा अन्य अपराधों में अकेले ही फंसते हैं और जिनके लिये काम करने का दावा करते हैं वह बाहर ही बैठे रहते हैं। परिवार, रिश्तेदार, या मित्रों में कोई भी आदमी उनके साथ कारावास में नहीं जाता।
अपराध, भ्रष्टाचार तथा कदाचरण से धन कमाने वाले अनेक लोग यह कहते हैं कि अपना परिवार पालने के लिये यह कर रहे हैं पर वह स्वयं को ही धोखा देते हैं। सबका दाता तो परमात्मा है। यहां भला कोई परिवार क्या पालेगा? जो गलत काम कर रहा है वही बदनाम होता है। इसके विपरीत जो भले काम कर अपना धर्म निभाते हैं उनकी छबि अच्छी बनती है। दोनों ही स्थितियों में आदमी जिम्मेदारी स्वयं ही होता है। अगर बुरे काम करेगा तो मरने के बाद वह उसके साथ ही जायेंगे। अच्छा काम किया है तो देहावसान के बाद धर्म साथ चलेगा।
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Saturday, February 20, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-परमात्मा की भक्ति प्राप्त की तो समझ लो तीर्थ नहा लिया

तीरथ नावा जे तिस भावा।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिस भक्त ने परमात्मा का स्मरण कर उसे पा लिया समझो उसने तीर्थ में स्नान कर लिया
‘मैंने सुरति होवै मनि बुद्धि।
मैंन संगल भवण की सुधि।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य की मन और बुद्धि में परमात्मा का नाम यदि स्थापित हो गया तो फिर वह इस संसार के भंवर की परवाह से मुक्त हो जाता है।
मैंने मुहि चोटा न खाई
मैंने जम क साथ न जाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-
भक्ति से मनुष्य को इतनी शक्ति मिल जाती है कि वह कहीं भी मुंह की नहीं खाता और न यमराज उसे ले जा सकते हैं-अर्थात उसकी आत्म तो परमात्मा स्वरूप को प्राप्त हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सांसरिक भव सागर से पार होने से आशय केवल यही नहीं होता कि मनुष्य को मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाए बल्कि इस संसार में रहते हुए आनंद से जीवन व्यतीत करना भी है। अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह संभव नहीं है। आजकल हम अनेक लोगों को अनाप शनाप हरकतें या बकवास करते हुए देखते हैं। उनमें यह दोष अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण ही उत्पन्न होता है। कहने को अनेक लोग धर्म में आस्था होने या पवित्र ग्रंथों को पढ़ने की बात करते जरूर हैं पर उनका आचरण इस बात का प्रमाण नहीं होता है। उनका यह दावा केवल अपनी छबि बनाने के लिये होता है ताकि वह लोगों के जज़्बातों का दोहन कर सकें।
किसी भी मनुष्य के भक्त होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वह जिंदगी के प्रति लापरवाह हो जाता है। दुःख सुख में समान रहता है। जिसने घर में रहते हुए शांति प्राप्त कर ली समझ लो उसने तीर्थ नहा लिया। वरना चाहे जितने जतन कर लो अगर हृदय में परमात्मा का नाम नहीं धारण किया मन को शांति नहीं मिल सकती।
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Friday, February 19, 2010

भर्तृहरि शतक-उच्च पद पाने की इच्छा अनंत

दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में धनी, उच्च पदस्थ, तथा बाहुबली आदमी की कितनी भी सेवा कर लीजिये पर उनको प्रसन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका मन तो घोड़े की तरह दौड़ता है। उनकी सेवा में रत इंसान को लगता है कि स्वामी उनकी तरफ देख रहा है पर सच तो यह है कि राजसी लोगों के पास ढेर सारे सेवक होते हैं और उनमें किसी को वह विशिष्ट नहीं मानते। इतना ही नहीं अगर उनकी सेवा कोई ऐसा व्यक्ति करे जो उनके यहां कार्यरत न हो, उसको लेकर भी उनके मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि वह भविष्य में हमारी सेवा पाने का प्रयास कर रहा है।
किसी आदमी को एक पद मिल गया तो फिर उससे बड़े पद की चाहत उसमें होने लगती है। वह भी मिल गया तो फिर उससे ऊंचे पद की आस करने लगता है। यह इच्छा अनंत है और इसका कहीं अंत नहीं है। आदमी अपने भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति में लगा रहता कि उसे बुढ़ापा घेर लेता है। ऐसे में तो केवल एक ही बात उचित लगती है कि अपना समय सत्संग, भक्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने में भी बिताना चाहिये ताकि तत्व ज्ञान होने पर इस संसार में दुःख तथा मानसिक संताप से छुटाकारा पाया जा सके।
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Tuesday, February 16, 2010

चाणक्य नीति-दुष्ट से संबध रखने पर सज्जन का भी पतन हो जाता है

दुराचारी च दृर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीध्रं विनश्यति।।
हिन्दी में भावार्थ-
दुराचारी, दुष्ट, कुदृष्टि रखने वाले, गंदे स्थान का निवासी दुर्जन आदमी से मित्रता करने पर सज्जन का भी शीघ्र पतन हो जाता है।
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि सर्प की अपेक्षा दुष्ट और बुरी नीयत वाला मनुष्य खतरनाक होता है।  सर्प तो समय आने पर अपनी रक्षा के लिये भयभीत होने पर ही काटता है जबकि दुष्ट आदमी तो अपने अंदर बिना किसी बैर के ही दूसरे को हानि पहुंचाने का विचार पाले रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में ऐसी मनोवृत्ति बन गयी है कि लोग दादाओं, गुंडों और तथा पेशेवर अपराधियों की संगत में स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं।  स्थित यह है कि जो कारावास से होकर लौटा हो समाज उससे डरने लगता है और उनसे संबंध रखकर लोग अपने लिये सुरक्षा का प्रबंध करते हैं।   इतना ही नहीं भ्रष्टाचार, ठगी और धर्म के नाम पर धंधा करने वालों को भी सम्मान दिया जाता है।  इसी कारण धीरे धीरे पूरा समाज विकृत मानसिकता की चपेट में आता जा रहा है।  सभी जानते हैं कि मृत्य निश्चित है फिर भी आदमी आतंकियों से डरते हैं। अब तो ऐसा भी होने लगा है कि अपराधियों, आतंकियों और व्यसनियों को भी उनके जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रीय समूहों द्वारा संरक्षण और समर्थन दिया जा रहा है जिससे निरंतन अपराध और आतंक बढ़ रहा है।
इस तरह की मानसिकता स्वयं के लिये ही खतरनाक है।  अगर आप यह सोचते हैं कि अपनी जाति, भाषा, धर्म, और क्षेत्रीय समूह के अपराधियों और आतंकियों से समाज की रक्षा होगी तो यह मूर्खतापूर्ण है।  अपराधी, आतंकी, भ्रष्टाचारी तथा ठगी लोग तो सांप से अधिक खतरनाक हैं जो हर पल दूसरे को काटने की फिराक में रहते हैं और ऐसा करते हुए वह जाति, धर्म, भाषा तथा अन्य आधार पर कोई विचार नहीं करते और विरोध करने पर अपने ही आदमी को हानि पहुंचाने से भी नहीं चूकते।
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Monday, February 15, 2010

पतंजलि योग दर्शन-आसन सिद्ध होने पर सांसरिक द्वंद्वों से मुक्ति संभव (yog sadhna-asanon se tanav mukti)

स्थिरसुखमासनम्।
हिन्दी में भावार्थ-
स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापतिभ्याम्।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन के समय प्रयत्न रहित होने के साथ परमात्मा का स्मरण करने से ही वह सिद्ध होता है।
ततोद्वन्द्वानभिघातः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसनों से सांसरिक द्वंद्वों का आघात नहीं लगता।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन की सिद्धि हो जाने पर श्वास ग्रहण करने और छोड़ने की गति रुक जाती है उसे प्राणायाम कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना कोई सामान्य व्यायाम नहीं है बल्कि ऐसी कला है जिसे जीवन में हमेशा ही आनंद का अनुभव किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सुखपूर्वक अपने मन और इंद्रियों का निग्रह कर बैठ सकें वही आसन है। इस दौरान अपने हाथ से कोई प्रयत्न न कर केवल परमात्मा का स्मरण करना चाहिये।  उस समय अपनी श्वास को आते जाते एक दृष्टा की तरह देखें न कि कर्ता के रूप में स्थित हों।  बीच बीच में उसे रोकें और फिर छोड़ें। इस प्राणायाम कहा जाता है। यह प्राणायाम मन और बुद्धि के विकारों को निकालने में सहायक होता है। इससे इतनी सिद्धि मिल जाती है कि आदमी गर्मी, सर्दी तथा वर्षा से उत्पन्न शारीरिक द्वंद्वों से दूर हो जाता है।  इतना ही नहीं संसार में आने वाले अनेक मानसिक कष्टों को वह स्वाभाविक रूप से लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह दुःख और सुख के भाव से परमानन्द भाव को प्राप्त होता है।
इस संसार में दो ही मार्ग हैं जिन पर इंसान चलता है। एक तो है सहज योग का दूसरा असहज योग।  हर इंसान योग करता है। एक वह हैं जो सांसरिक पदार्थों में मन को फंसाकर कष्ट उठाते हैं दूसरे उन पदार्थों से जुड़कर भी उनमें लिप्त नहीं होते। इसलिये कहा जाता है कि योग जीवन जीने की एक कला है और यह भी अन्य कलाओं की तरह अभ्यास करने पर ही प्राप्त होती है।
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Saturday, February 13, 2010

रहीम के दोहे-उस सुख से क्या लाभ जो बाढ़ के पानी की तरह बह जाये (rahim ke dohe-sukh aur pani)

तासो ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिससे कुछ पाने की संभावना हो उससे ही कोई आशा करना चाहिये। खाली तालाब के पास जाकर कोई प्यास नहीं बुझती।
तेहि प्रमाण चलिबो भलो, जो सब दिन ठहराइ।
उमड़ि चलै जल पार तें, जो रहीम बढ़ि जाइ।।
कविवर रहीम का कहना है कि जिससे सब दिन आनंद प्राप्त हो वही सुख प्रमाणिक माना जाना चाहिये।  ऐसे सुख से क्या लाभ जो क्षणिक हो और वह ऐसे ही उतर जाये जैसे बाढ़ का पानी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह जरूरी नहीं है कि जिसे धन, पद और अन्य भौतिक साधन हों वह समय पड़ने पर सहायता करने वाला हो। सबसे बड़ी बात यह है कि इंसान में दूसरे की मदद करने का भाव होना चाहिये। यही भाव मदद चाहने वाले के लिये रस बनकर प्रवाहित होता है।  जिस व्यक्ति के पास ढेर सारा धन हो पर अगर उसमें उदार भाव नहीं है तो उससे कोई आशा करना स्वयं को धोखा देना है।  कहने का अभिप्राय यही है कि अपने आसपास ऐसे लोगों का संग्रह करना चाहिये जिनके हृदय में शुद्धता और स्नेह का भाव हो वरना उनसे दूरी ही भली क्योंकि उनसे संकट में सहायता की आशा करना व्यर्थ है।
आजकल विज्ञापन का युग है और हर तरफ सुख बिक रहा है। कहीं कोई व्यक्ति हृदय का नायक बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है तो कहीं जिंदगी भर का आराम दिलाने वाली वस्तुओं का प्रदर्शन हो रहा है।  यह केवल जेब से पैसा निकालने की नीति है जिस पर वणिक वर्ग चल रहा है।  याद रखिये हर मनुष्य में दोष होता है अतः कोई इतना पवित्र नहीं हो सकता कि उसे फरिश्ता मान लिया जाये। उसी तरह हम अपने सुख के लिये जो चीजें खरीदते हैं वह कभी न कभी खराब हो जाती हैं और तब हम जो काम हाथ से करते हैं वह नहीं हो पाता और हमारे लिये तनाव का कारण बनता है। उल्टे इन कथित सुख प्रदान करने वाले साधनों से हमारी देह काम करने की आदी नहीं रहती और इससे बीमारियां तो पैदा ही होती हैं मानसिक रूप से भी हम पंगु होते चले जाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि इस तरह के सुख क्षणिक हैं और फिर समय आने पर वह विदा हो जाते हैं। अतः जितना हो सके स्वावलंबी बने।


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Thursday, February 11, 2010

वेदांत दर्शन-परमात्मा को इंद्रिय युक्त मानना ठीक नहीं है (vedant darshan-parmatma aur indriyan)

करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः।

हिन्दी में भावार्थ-
यदि परमात्मा को देह इंद्रिय आदि करणोें से युक्त मान लिया गया तो भोग आदि से उनका संबंध सिद्ध हो जायेगा जो कि ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वेदांत दर्शन में एक एक शब्द की स्वतंत्र व्याख्या है और उसे समझ पाने के लिये यह आवश्यक है कि उसके आशय पर थोड़ा चिंतन अवश्य करें।  अक्सर लोग यह कहते हैं कि परमात्मा सब देखता, सुनता और समझता है। भक्तों का यह भाव बुरा नहीं है पर इससे होता यह है कि वह सांसरिक उपलब्धियों कासारा श्रेय भगवान को देते हैं तो दुःख के लिये उसे जिम्मेदार भी मानते हैं। यह अलग बात है कि अपने कर्तापन का अहंकार भी उनमें होता है। सच तो यह है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा त्रिगुणमयी माया से परे है।  वह इस संसार का निर्माता और नियंत्रणकर्ता है पर यहां विचरण करने वालों जीवों के कर्म का कारण नहीं है अतः उसके फल का भी उस पर दायित्व नहीं आता।
इस संसार में मनुष्य को अपने ही कर्म के अनुसार क्रम से फल मिलता है। सुविधाओं का सेवन और दुविधाओं में फंसने के लिये उसकी बुद्धि और विवेक जिम्मेदार होता है।

सकाम भक्ति वाले हर अच्छी और बुरी बात में परमात्मा का तत्व ढूंढने लगते हैं जबकि इसके विपरीत  निष्काम भक्त तो अपने साथ होने वाली हर घटना को इस जगत का परिणाम मानते हैं। दूसरी बात यह कि वह दुःख सुख में समान रहते हैं क्योंकि उनको इस बात का आभास होता है कि यह संसार निरंकार परमात्मा की रचना है और यहां अच्छा या बुरा केवल जीव की अनुभूति और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।  अतः वह निरंकार परमात्मा को इंद्रियों से रहित मानते हैं क्योंकि इद्रियों का गुण भोगना है और वह इससे दूर है।
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Wednesday, February 10, 2010

पतंजलि योग दर्शन-विषयों से परे रहना है चतुर्थ प्राणायाम (patanjali yoga darshan in hindi)

ब्राह्माभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थ।
हिन्दी में भावार्थ-
बाहर और भीतर के विषयों का त्याग कर देना स्वयं में ही चतुर्थ प्राणायाम है।
तत क्षीयते प्रकाशावरणम्।।

हिन्दी में भावार्थ-इस प्राणायाम से अज्ञान क्षीण होने के साथ ही  ज्ञान का दीप प्रज्जवलित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इसे ध्यान का ऐसा चरम स्वरूप मान सकते हैं जो वास्तव में  प्राणायाम के तुल्य है।  सच बात तो यह है कि योगसाधना, मंत्रोच्चार तथा प्रार्थना अपने मन और देह को पवित्र करने के साधन हैं जिससे ध्यान के समय अधिक दुविधा न रहे। अक्सर लोग यह शिकायत करते हैं कि उनका ध्यान नहीं लगता क्योंकि मन में विचार आते जाते हैं।  यही कारण है योगासनों के समय हर आसन के साथ अपने सात चक्रों पर दृष्टि रखने के लिये कहा जाता है ताकि उससे ध्यान के समय सुविधा हो।  यही स्थिति प्राणायाम की भी है।  इनसे मन और बुद्धि के विकार निकाले जाते हैं।  अगर कुछ लोग योगासन और प्राणायाम नहीं करना चाहते तो वह ध्यान के माध्यम से अध्यात्मिक लाभ कर सकते हैं।  इसमें उन्हें आखें बंद कर आसन पर बैठना चाहिये और फिर अपनी दृष्टि भृकुटि के बीच में रखना चाहिये। विचार आते है, आने दें पर अपना प्रयास न छोड़ें। धीरे धीरे आप देखेंगे कि आपका ध्यान लगता जा  रहा है। योगासन, प्राणायाम, मंत्रोच्चार और प्रार्थना केवल आठ प्रकृतियों की शुद्धता के लिये मुख्य लक्ष्य तो ध्यान का चरम शिखर चढ़ना है।  यही ध्यान भारतीय अध्यात्मिक की शक्ति माना जाता है।  योगासन और प्राणायाम तो इस ध्यान के लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं जबकि ज्ञान के लिये ध्यान में सफलता प्राप्त करना आवश्यक है। भीतर और बाहर के विषयों से परे रहने की प्रक्रिया को ही  चतुर्थ प्राणायाम के साथ ध्यान भी कहा जा सकता है।
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Sunday, February 7, 2010

संत कबीर वाणी-आग में जलकर भी सोना चमक नहीं खोता (fire and gold-sant kabir vani)

सोने रूप धाह दइ, उत्तम हमारी जात।
वन ही में की घूंघची, तोली हमरे साथ।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सोने  की परख के लिये उसे आग में जलाया जाता है पर फिर भी  अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करते हुए सोना मानो शिकायत करता है कि कहां मेरी तुलना वन में पैदा हुई घुंघची से की?
तोल बराबर घूंघची, मोल बराबर नांहि।
मेरा तेरा पटतरा, दीजै आगी मांहि।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि तोल में घूंघची सोने की बराबरी कर सकती है पर मोल में नहीं।  इनकी असलियत का पता तब चलता है जब आग में जलने पर सोने की श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आदमी का बाह्य रूप चाहे कितना भी आकर्षक हो पर उसमें बुद्धि और विवेक की शुद्धता नहीं है तो वह किसी काम का नहीं है।  सोना का मूल गुण चमक है और वह उसे अग्नि में जलकर भी बचाये रहता है उसी तरह मनुष्य का मुख्य गुण परोपकार और भक्ति करना है।  कोई मनुष्य चाहे कितने भी अच्छे कपड़े पहनता हो, धनवान हो, उच्च पदारूढ़ हो या बाहूबली, अगर वह समाज के काम का नहीं है तो उससे कुछ सीखने का प्रयास नहीं करना चाहिये क्योंकि अपने लिये उपभोग की सामग्री तो पशु भी जुटा लेते हैं अगर किसी मनुष्य ने दूसरों की अपेक्षा अधिक  समृद्धि जुटा ली तो कौनसा तीर मार लिया?
दूसरी बात हम  यह भी देखें कि हमारी दैनिक समस्याओं के हल में ऐसे लोग ही मदद करते हैं जिनको हम तुच्छ या गरीब कहते हैं। अनेक पूंजीपति  अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों या कर्मचारियों को छोटा जरूर समझते हैं पर दैहिक या मानसिक संकट आने पर वही लोग उनके सबसे पहले सहायक बनते हैं।  हमारे देश में लोगों की प्रवृत्ति है कि वह धनवान, उच्च पदारूढ़ तथा बाहूबली लोगों की चाटुकारिता इस आशा से करते हैं कि पता नहीं उनमें कब काम फंस जाये, पर जब विपत्ति काल आता है तो उनको छोटे लोगों से ही सहायता मिलती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम अपने बाह्य रूप में निखार करने की बजाय अपने अंदर आंतरिक गुणों का विकास करें ताकि समाज में हमारी उत्कृष्ट छबि  का निर्माण हो सके।  इसके अलावा बाह्य रूप देखकर किसी के बारे में अच्छी राय कायम नहीं करना चाहिये जब तक उसके आंतरिक गुणों की पहचान न हो जाये।
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Saturday, February 6, 2010

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब-इस संसार में केवल परमात्मा का नाम ही सच है (shri guru granth sahib-pramatma ka naam sach)

‘आदि सच जुगादि सच।
हे भी सच, नामक होसी भी सच।।’
हिन्दी में भावार्थ-उसका नाम सत्य सत्य परमात्मा है, यह अतीत के युगों में भी सत्य था, वर्तमान काल में भी सत्य है और आने वाले अनेक युगों तक यह सत्य बना रहेगा।
‘सच पुराणा होवे नाही।’
हिन्दी में भावार्थ-
दुनियां में समय के साथ हर चीज पुरानी पड़ जाती है लेकिन परमात्मा का नाम कभी पुराना नहीं पड़ता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -हम इस संसार में जितनी भी वस्तुऐं और व्यक्ति देख रहे हैं समय के साथ सभी पुराने पड़ते हैं।  इसलिये उनमें मोह डालना या उनके आकर्षण के वशीभूत होकर उनको पाने के लिये अपना पूरा जीवन नष्ट करने कोई लाभ नहीं है।  व्यक्ति समय के हिसाब से भ्रुण, शिशु, बालक, युवा, अधेड़ तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होता है।  कोई मनुष्य चाहे कितना भी श्रृंगार कर अपने को युवा दिखाये पर दैहिक रूप से उसमें समय के साथ शिथिलता आती है।  यही हाल वस्तुओं का है। कोई वस्तु हम अगर किसी दुकान से जिस भाव में खरीदते हैं उसी भाव में उसे घर लाकर नहीं बेच सकते।  इतना ही नहीं हम आजकल के आधुनिक विद्युतीय साधनों को बड़े चाव से खरीदते हैं पर जल्द ही उनका नया माडल आ जाता है और लोग उसे पुराने फैशन का कहना प्रारंभ कर देते हैं। 

अतः संसार के भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण और मनुष्यों में मोह एक सीमा तक ही रखना चाहिये।  यहां केवल सच केवल परमात्मा का नाम है जिसे चाहे बरसों तक लेते रहे पर उसके पुराने होने का अहसास नहीं होता। भक्ति जितनी करो उतनी थोड़ी लगती है बल्कि दिन ब दिन उसमें नवीनता का अनुभव होता है।  दूसरी चीजों या मनुष्यों से स्वार्थ की पूर्ति न होने पर निराशा मन में आती है पर निष्काम भक्ति से कभी हृदय में तनाव नहीं आता बल्कि उससे दुनियां के दुःख दर्द को सहने की शक्ति आती है।

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