Wednesday, June 17, 2009

भक्ति के लिए नहाना ज़रूरी नहीं-आलेख

स्नातो या यदि वाऽस्नातः शुचिवां यदि वाऽशुचि।
विभूतिं विश्वरूपं च संस्मरन्सर्वदा शुचिः।
हिंदी में भावार्थ-
स्नान किया हो या न किया हो, देह पवित्र हो या अपवित्र पर जो मनुष्य परमात्मा के विश्वरूप का स्मरण करता है वह सदा ही पवित्र है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-परमात्मा की सच्चे हृदय से भक्ति करने से ही मन और देह को शांति मिलती है। अक्सर लोग यह कहते हैं कि स्नान आदि करके ही परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। इसके अलावा अनेक भक्त मूर्तियों पर फूल और जल चढ़ाकर उसे ही सच्ची भक्ति मान लेते हैं। कई लोग तो केवल इसलिये भक्ति का वह तरीका अपना लेते हैं कि दूसरा भी ऐसा ही कर रहा है तो कुछ दूसरों को दिखाने के लिये कर्मकांड या हवन करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग कुछ अपने को तो कुछ दूसरों को दिखाने के लिये भक्ति करते हैं जबकि भक्ति, स्मरण और ध्यान हृदय से ही की जाना चाहिए।

आखिर यह कैसे पता चले कि हम भक्ति कर रहे हैं? जब हम परमात्मा का स्मरण या ध्यान कर रहे हों तब किसी अन्य बात का विचार हमारे अंदर न आये तब यह समझना चाहिये कि हम हृदय से भक्ति कर रहे हैं। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब हम जब परमात्मा के निरंकार स्वरूप का स्मरण प्रारंभ करते हैं तब उनका कोई स्वरूप हमारे मस्तिष्क में रहता है। उस पर ध्यान केंद्रित करते समय शुरुआत में हमारे अंदर तमाम तरह के विचार आते हैं। उन्हें आने दीजिये। उनके आने से अपना ध्यान लगाना बंद मत कीजिये। दरअसल वह विचार एक विकार के रूप में हमारे अंदर रहते हैं। ध्यान लगाते हुए हमारे अंदर जो ज्ञानाग्नि प्रज्जवलित होती है वही विकार उसमें पूर्णाहति की तरह जलने आते हैं। जब दृढ़ता से अपने ध्यान में स्थिर रहेंगे तब धीरे धीरे अनुभव होगा कि हमारा ध्यान केवल भृकुटि पर ही केद्रित हो गया है और वहां हम आत्मिक रूप से केवल शून्य में स्थित हैं। यह ध्यान की सबसे रोचक और चरम स्थिति है।
स्मरण या ध्यान करने के बाद जब हम वापस लौटें तब हमें इस दुनियां में नवीनता का अनुभव हो तभी यह समझना चाहिए कि उसका लाभ हुआ है। शुरुआत में शायद ऐसा न लगे पर हम ध्यान, भक्ति और स्मरण के तत्काल बाद यह अनुभव करने का अभ्यास करें तो एसा लगने लगेगा कि ध्यान के बाद प्रतिदिन एकदम नवीन होता है।
वैसे तो ध्यान या स्मरण दैहिक स्वच्छता के बाद करना चाहिए पर स्वास्थ्य खराब होने के कारण यह किसी अन्य वजह से नहाना न हो पाये तब भी उतने ही उत्साह से ही भक्ति, स्मरण और ध्यान करना चाहिए। अगर अवकाश हो या समय मिल जाये तब चाहे जब ध्यान और स्मरण हो सकता है। जैसे दोपहर के खाने के बाद ऐसा लगता है कि कुछ देर ध्यान करना या कोई धार्मिक पुस्तक पुस्तक पढ़ना अच्छा रहेगा तो अपने विचार को इसलिये स्थगित न करें कि अस्वच्छ देह से ऐसा करना ठीक नहीं है। तात्पर्य यह है कि भक्ति, स्मरण और ध्यान में दृढता पूर्वक अपन हृदय लगाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इससे मानसिक और वैचारिक तनाव कम होता है।
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