Friday, July 18, 2008

संत कबीर वाणी-शिष्यों से पांव पुजवाने वाले गुरुओं की दीक्षा से मुक्ति नहीं

सूर लड़ै गुरु दाव से, इक दिस जूझन होय
जूझै बीना सूरमा भला न कहसी कोय


संत शिरोमणि कबीरदास जी के अनुसार जो शूरवीर होता है वह अपने गुरु के बताये ज्ञान के अस्त्र शस्त्र से इस जीवन संघर्ष में जूझता है। जब तक कोई इस संघर्ष में लड़ने के लिये मैदान में नही उतरता वह साहसी नहीं कहलाता।

पांव पुजावे बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय


संत शिरोमणि कबीर दास जी के अनुसार ऐसे गुरु जो बैठकर केवल अपने शिष्यों से पांव पुजवाते हैं उनकी दीक्षा से कभी मुक्ति नहीं हो सकती बल्कि करोड़ों और नरक भोगने पड़ते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-गुरु से शिक्षा ्रपाप्त करने के बाद मनुष्य को जीवन संघर्ष में लड़ने के लिये उतरना चाहिए। यह संघर्ष दैहिक और मानसिक दोनों स्तरों पर होता है। दैहिक से आशय यह है कि मनुष्य को अपने रोजगार आदि के लिये कार्य करना पड़ता है जिसमें उसे नैतिक आचरण और ईमानदारी से जुटना चाहिए। अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए मीठी वाणी बोलना, किसी के कटु बोलने पर भी क्रोध न करना, परोपकार करना और सहज भाव से सभी के प्रति समान भाव रखने के साथ बुरा समय आने पर विचलित न होना आदमी के मानसिक रूप से पुख्ता होने का प्रमाण है। यह किसी सद्गुरू की शिक्षा से सहज और संभव हो जाता है।

जो गुरु शिक्षा देने के बाद अपने शिष्य को अपने से अलग न कर अपने पास ही बुलाते रहते हैं वह गुरु नहीं है बल्कि व्यवसायी है। वह अपने पास शिष्य को बुलाकर उससे अपनी सेवा कराते हैं। ऐसे गुरु तो कभी ज्ञानी नहीं होते बल्कि उनकी संगत करने से इस धरती के अलावा परलोक में भी नरक भोगना पड़ सकता है। गुरु का कार्य है कि वह अध्यात्म की शिक्षा देकर अपने शिष्य को अपने से अलग कर दूसरे शिष्यों को शिक्षा देने का काम शुरू करे अगर वह ऐसा नहीं करता तो इसका आशय यह है कि वह दिखावटी ज्ञानी है। अध्यात्म शिक्षा देने और प्राप्त करने का उद्देश्य यही है कि मनुष्य अपने जीवन संघर्ष में आगे बढ़ता जाये न कि वह बार-बार गुरु के सेवा में लौटकर आये। जब तक वह शिक्षा प्राप्त कर रहा है तभी तक उसका कर्तव्य है कि वह गुरु की सेवा करे और बाद में दक्षिणा देकर चला जाये न कि केवल गुरु की प्रदक्षिणा कर अपना जीवन नष्ट करता रहे।

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