Thursday, June 19, 2008

संत कबीरवाणी:तोते की तरह पढ़कर पिंजरे में बंद होने से क्या फायदा

पढि पढि और समुझावइ, खोजि न आप सरीर
आपहि संशय में पड़े, यूं कहि दास कबीर


संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि लोग लोग किताबें पढ़कर दूसरों को समझाते हैं पर अपने जीवन में सत्य को नहीं खोज पाते। ऐसे पढ़ने वाले स्वयं ही संशय में पड़े होते हैं वह भला और लोगों को क्या मार्ग दिखायेंगे।

चतुराई पोपट पढ़ी, पडि सो पिंजर मांहि
फिर परमोधे और को, आपन समुझै नांहि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे चतुराई का लिखना पढ़ना तो व्यर्थ ही है जो पिंजरे में बंद तोता बनना पड़े। वह तोता अन्य लोगों को उपदेश तो देता है पर अपने पिंजरे से आजाद होने का मार्ग नहीं जानता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जब कबीरदास जी ने यह दोहा कहा होगा तब कोई लार्ड मैकाले नहीं था जो गुलाम बनाने की शिक्षा पद्धति का निर्माण करता पर फिर भी उस समय ऐसे कथित विद्वान रहे होंगे जो चंद किताबें पढ़कर उसी तरह ज्ञान बेचने का व्यवसाय करते होंगे जैसा कि वर्तमान में कर रहे हैं। आज की तो समूची शिक्षा पद्धति ही आदमी को गुलाम बनाने वाली है। जिन्होंने शिक्षा पद्धति से शिक्षा ग्रहण की है वह सब नौकरी कर रहे हैं या उसकी तलाश में है। भजन और भक्ति में मन तो तभी लग सकता है जब आदमी अपने मस्तिष्क मेें स्वतंत्र सोच रखता हो। वैसे वर्तमान शिक्षा पद्धति से जिन लोगों ने शिक्षा नहीं ग्रहण की उनको अनपढ़ या निरक्षर कहा जाता है पर वह फिर भी अपने स्वतंत्र व्यवसाय कर भजन भक्ति कर लेते हैं। इसके विपरीत जिन लोगों ने तमाम तरह की उपाधियां प्राप्त की हैं वह तो गुलामों जैसी मानसिकता के हैं अपने से अधिक पद, प्रतिष्ठा और पैसे वाले की ऐसे ही गुलामी करते हैं जैसे उनके बिना उनके जीवन का गुजारा नहीं होता हो। यह अलग बात है कि अब ऐसे ही लोग समाज में उपदेश देने का काम करते हैं। धार्मिक ग्रंथों की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं और जो नहीं करते वह भी बिना किसी तर्क के उपदेशों पर यकीन कर उनको अपना गुरू मान लेते हैं। कुल मिलाकर स्वतंत्र सोच और चिंतन का लोगों मे अभाव है जबकि अधिक शिक्षित व्यक्ति को अपने ढंग से स्वतंत्र चिंतन, मनन और अनुसंधान कर परिपक्व अभिव्यक्ति का परिचय देना चाहिए न कि तोते की तरह रटकर ज्ञान बांटते हुए स्वयं के मन को मोह माया के पिंजरे में बंद करना चाहिए।
यह इस ब्लाग की सौवां पाठ है-दीपक भारतदीप

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