Tuesday, January 8, 2008

चाणक्य नीति:भोजन के तत्काल बाद मेजबान का घर छोड़ दें

१.मन का संयम अर्थात शांति और स्थिर भाव के समान कोई दूसरा तप नहीं है, संतोष जैसा कोई सुख नहीं, तृष्णा जैसा दु:ख देने वाला और भयंकर रोग नहीं तथा दया जैसा स्वच्छ और अच्छा दूसरा कोई धर्म नहीं । अत: सुख के इच्छुक व्यक्ति को तृष्णा से बचना चाहिए तथा सफलतम जीवन में शांति,संतोष और दया को अपनाना चाहिए। इसी में महानता है।
२.जिस प्रकार सोने की चार विधियों-घिसना, काटना, तपाना तथा पीटने-से जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य की श्रेष्ठता की जांच भी चार विधियों-त्यागवृति, शील, गुण तथा सतकर्मो -से की जाती है।
३.संसार के दुखों से दुखित पुरुष को तीन ही स्थान पर थोडा विश्राम मिलता है- वह हैं संतान, स्त्री और साधूराजा की आज्ञा, पंडितों का बोलना और कन्यादान एक ही बार होता है।एक व्यक्ति का तपस्या करना, दो का एक साथ मिलकर पढ़ना, तीन का गाना, चार का मिलकर राह काटना, पांच का खेती करना और बहुतों का मिलकर युद्ध करनापक्षियों में कोआ, पशुओं में कुत्ता और मुनियों में पापी चांडाल होता है पर निंदा करने वाला सबसे बड़ा चांडाल होता है।

4.जिस प्रकार कोई गायिका निर्धन प्रेमी को नहीं पूछती, पराजित राजा को जनता मान नहीं देती, उसी प्रकार से सूखे और टूटे वृक्ष को पक्षी छोड़ जाया करते हैं। अत: अतिथि को चाहिए कि वह भोजन के तुरन्त बाद मेजबान का घर छोड़ दे।
5.यजमान के घर सर पुरोहित दक्षिणा लेकर और विद्या अर्जन के बाद विद्यार्थी गुरू के द्वार से चला जाता है उसी प्रकार से वन के जल जाने पर पहु-पक्षी वन का त्याग कर अन्यत्र पलायन कर जाते हैं।
लेखकीय अभिमत-चाणक्य एक महान विद्धान थे और इन अन्तिम दोनों संदेशों में उनका यही आशय है कि आदमी को और परिस्थियों को ध्यान में रखते हुए अपनी शारीरिक सुरक्षा और मान-सम्मान के लिए सतर्कता बरतना चाहिए।

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