Thursday, July 31, 2008

विदुर नीतिःभूख ही भोजन में स्वाद पैदा करती है

1.दरिद्र मनुष्य सदा ही स्वादिष्ट भोजन करते हैं क्योंकि भूख उनके भोजन में स्वाद उत्पन्न कर देती है और वह भूख धनियों के लिये सदैव दुर्लभ होती है।
2.संसार में धनियों को प्रायः भोजन करने की शक्ति नहीं होती किंतु दरिद्र के पेट में तो काठ की हजम हो जाते हैं।
3.दुष्ट पुरुषों को जीविका न होने से भय लगता है, मध्यम श्रेणी का पुरुष सदैव मृत्यु से भयभीत रहता है। परंतु उत्तम पुरुष को अपमान से ही भय रहता है।
3.शराब पीने का नशा आदमी पढ़ चढ़ता है किंतु वैभव और संपत्ति का नशा तो बहुत ही बुरा है क्योंकि उसके मद में आदमी अपना होश खोकर धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
4.जिस मनुष्य की इद्रियां अपने वश में नहीं होने के कारण विषय में रमती हैं वह इस संसार में भांति भांति के कष्ट पाता है, जैसे सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र कष्ट पाते हैं।
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Wednesday, July 30, 2008

संत कबीर वाणी:मसखरों को साधू न समझें

कबीर कलियुग कठिन हैं, साधू न मानै कोय
कामी क्रोधी मसखरा तिनका आदर होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अब इस घोर कलियुग में कठिनाई यह है कि सच्चे साधू को कोई नहीं मानता बल्कि जो कामी, क्रोधी और मसखरे हैं उनका ही समाज में आदर होने लगा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम कबीरदास जी के इस कथन के देखें तो हृदय की पीडा कम ही होती है यह सोचकर कि उनके समय में भी ऐसे लोग थे जो साधू होने के नाम पर ढोंग करते थे। हम अक्सर सोचते हैं कि हम ही घोर कलियुग झेल रहे हैं पर ऐसा तो कबीरदास जी के समय में भी होता था। धर्म प्रवचन के नाम पर तमाम तरह के चुटकुले सुनकर अनेक संत आजकल चांदी काट रहे हैं। कई ने तो फाईव स्टारआश्रम बना लिए हैं और हर वर्ष दर्शन और समागम के नाम पर पिकनिक मनाने तथाकथित भक्त वहाँ मेला लगाते हैं। सच्चे साधू की कोई नहीं सुनता। सच्चे साधू कभी अपना प्रचार नहीं करते और एकांत में ज्ञान देते हैं और इसलिए उनका प्रभाव पड़ता है। पर आजकल तो अनेक तथाकथित साधू-संत चुटकुले सुनाते हैं और अगर अकेले में किसी पर नाराज हो जाएं तो क्रोध का भी प्रदर्शन करते हैं। उनके ज्ञान का इसलिए लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता भले ही समाज में उनका आदर होता हो।
अनेक कथित संत और साधु अपने प्रवचनों के चुटकलों के सहारे लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। लोग भी चटखारे लेकर अपने दिल को तसल्ली देते हैं कि सत्संग का पुण्य प्राप्त कर रहे हैं। यह भक्ति नहीं बल्कि एक तरह से मजाक है। न तो इससे मन में शुद्धता आती है और न ज्ञान प्राप्त होता है। सत्संग करने से आशय यह होता है कि उससे मन और विचार के विकार निकल जायें और यह तभी संभव है जब केवल अध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा हो। इस तरह चुटकुले तो मसखरे सुनाते हैं और अगर कथित संत और साधु अपने प्रवचन कार्यक्रमों में सांसरिक या पारिवारिक विषय पर सास बहु और जमाई ससुर के चुटकुले सुनाने लगें तो समझ लीजिये कि वह केवल मनोरंजन करने और कराने के लिये जोगी बने है। ऐसे में न तो उनसे लोक और परलोक सुधरना तो दूर बिगड़ने की आशंका होती है।
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Tuesday, July 29, 2008

विदुर नीतिःबुद्धिमान की होती हैं बाहें लंबी

1.बुद्धिमान मनुष्य की कहीं निंदा कर यह नहीं सोचना चाहिए कि अब निश्चित हो गये। बुद्धिमान की बाहेंे लंबी होती हैं और निंदा करने या सताये जाने वह उन्हीं बाहों से बदला लेता है।
2. जो विश्वास पात्र नहीं है उस पर तो कभी विश्वास करना ही नहीं चाहिए पर जिस पर किया जा सकता है उस पर भी अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए।
3.वैसे तो सभी को ईष्यारहित, स्त्रियों की रक्षा करने वाला, संपत्ति का न्याय करने वाला, प्रियवचन बोलने वाला, स्वच्छ तथा स्त्रियों से मधुर बोलने वाला होना चाहिए पर किसी के वश में कभी नहीं होने से सभी को बचना चाहिए।

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Monday, July 28, 2008

संत कबीर वाणीः भक्त के लिये देह होती है विदेश समान

तीन गुनन की बादरी, ज्यों तरुवर की छांहि
बाहर रहै सो ऊबरै, भींजै मन्दिर मांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस त्रिगुणमयी बादलों की माया भी वैसे ही जैसे वृक्ष की छाया जो कभी स्थिर नहीं रहती। इस दुनियां में उसी व्यक्ति का उद्धार हो सकता है जो इसमें हृदय से लिप्त नहीं होता।

पंछि उड़ानी गगन को, पिंड रहा परदेस
पानी पीया, चोंच बिन, भूलि गया वह देस

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जब अपना हृदय भगवान में लग जाता है शरीर भी एक तरह से विदेश की तरह लगता है। जब मनुष्य ध्यान और स्मरण के द्वारा परमात्मा की अनुभूति का रस बिना चोंच के पीने लगता है तब वह इस शरीर का भूल जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सात्विक, राजस और तमास इन तीन गुणों की माया में यह संसार बसा हुआ है। इन तीनों गुणों से पर होकर परमात्मा में मन लगाने वालों को इनसे कोई मतलब नहीं रहा जाता। इन तीनों के वशीभूत होकर कोई भी कर्म किया जाये वह सकाम होता है। इनके आधार पर की गयी भक्ति भी सकाम होती है। निष्काम भाव का आशय यही है कि इन तीनों गुणों से परे होकर केवल परमात्मा में मन लगाया जाये। इस संसार में देह है तो उसे जीवित रखने के लिये कार्य करना है यह जानते हुए ही जो कार्य करते हैं वही प्रसन्न रहता है। ‘यह देह मैं नहीं हूं, बल्कि परमात्मा का अंश आत्मा हूं’ यह भाव रखने वाला ही निष्काम भाव से इस संसार का आनंद उठा पाता है। उसके लिये यह देश ऐसे ही जैसे विदेश में रहना।

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Sunday, July 27, 2008

विदुर नीति;विद्वान पुरुष दूसरे के विषय में दखल नहीं देते

1.संपूर्ण भौतिक पदार्थों की वास्तविकता का जो ज्ञान रखता है तथा सभी कार्यों को संपन्न करने का ढंग तथा उसका परिणाम जानता है वही विद्वान कहलाता है।
2.जिसकी वाणी में वार्ता करते हुए कभी बाधा नहीं आती तथा जो विचित्र ढंग से बात करता है और अपने तर्क देने में जिसे निपुणता हासिल है वही पंडित कहलाता है।
3.जिनकी बुद्धि विद्वता और ज्ञान से परिपूर्ण है वह दुर्लभ वस्तु को अपने जीवन में प्राप्त करने की कामना नहीं करते। जो वस्तु खो जाये उसका शोक नहीं करते और विपत्ति आने पर घबड़ाते नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति को ही पण्डित कहा जाता है।
4.जो पहले पहले निश्चय कर अपना कार्य आरंभ करता है, कार्य को बीच में नहीं रोकता। अपने समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त को वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है।
5.विद्वान पुरुष किसी भी विषय के बारे में बहुत देर तक सुनता है और तत्काल ही समझ लेता है। समझने के बाद अपने कार्य से कामना रहित होकर पुरुषार्थ करने के तैयार होता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ बात नहीं करता। इसलिये वह पण्डित कहलाता है।

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Saturday, July 26, 2008

विदुर नीति- अपने कार्य का मंत्र गुप्त रखना ही हितकर

1.जो कभी उद्दण्ड रूप नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की प्रशंसा नहीं करता तथा क्रोध आने पर भी कटु वाणी में नहीं बोलता उसे सभी लोग प्यार करते हैं।
2.जो मनुष्य अपने शांति हुए वैर की अग्नि फिर से प्रज्जवलित नहंी करता, जिसमें कोई गर्व का भाव नहंी हैं और जो अपने कर्तव्य को विपत्ति नहीं समझता वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है।
3.जो अपने सुख में प्रसन्न नही होता और दूसरे के दुःख में हर्ष नहीं करता और अपना दान करने के पश्चात अपने मन में संताप नहीं करता वह सदाचारी कहलता है।
4.जो अपने आश्रितों को बांटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है तथा मांगने पर जो मित्र न होने पर भी देता है उस मनस्वी मनुष्य को अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं।
5.जिसके अपनी इच्छा के अनुसार दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने की तरीका दूसरे लोग नहीं जान पाते, तथा जो मनुष्य अपने मंत्र गुप्त रखते हुए अपना कार्य ठीक ढंग से करते हैं उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता।

लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, July 25, 2008

विदुर नीतिःदूसरे में दोष न देखने वाले की आयु बढ़ती है

1.मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरंतर चिंतन और उपयोग करता है कार्य उसे अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा ही कल्याण करने वाले विचार और कार्य करें।
2.संपूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव रखना, किसी गुणवान के दोष न देखना, क्षमाभाव, धैर्य और मित्रों का अपमान न करने जैसे गुणों का धारण करने से आयु बढ़ती है।
3.इंद्रियों को रोक पाना तो मृत्यु से भी अधिक कठिन है और उन्हें अनियंत्रित होने देना तो अपने पुण्य और देवताओं का नाश करना है।
4. जो अपने संभावित दुःख को का प्रतिकार करने का उपाय जानता है और वर्तमान में अपने कर्तव्य के पालने में दृढ़ निश्चय रखने वाला है और जो भूतकाल में शेष रह गये कार्य को याद रखता है वह मनुष्य कभी भी आर्थिक दृष्टि से गरीब नहीं रह सकता।
5.जो शक्तिहीन है वह तो सबके प्रति क्षमा का भाव अपनाये। जो शक्तिशाली है वही धर्म के लिए क्षमा करे तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों ही समान है उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकारिणी है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, July 24, 2008

संत कबीर वाणीःकर्तापन का अहंकार राम की भक्ति में बाधक

पद गावै मन हरषि के, साखी कहै अनंद
राम नाम नहिं जानिया, गल में परिगा फंद

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे कई लोग हैं जो प्रसन्न होकर भजन गाते है और साखी कहते हैं पर वह राम का नाम और उसका महत्व नहीं समझते। अतः उनके गले में मृत्यु का फंदा पड़ा रहता है।
राम नाम जाना नहीं, जपा न अजपा जाप
स्वामिपना माथे पड़ा ,कोइ पुरबले पाप

संत शिरोमणि कबीरदास जी कि मनुष्य ने राम का नाम जाना नहीं और कभी जपा तो कभी नहीं जपा। मन में अहंकार है और अपने स्वामी होने के अनुभव से मनुष्य पाप करता हुआ फिर उसके परिणाम स्वरूप दुःख भोगता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या- भगवान राम के चरित्र और जीवन पर व्याख्या करने वाले अनेक कथित संत और साधु हैं जो भक्तों को सुनाते हैं पर यह उनका व्यवसाय है। अनेक लोग भगवान राम के भजन गाते हैं। उनके वीडियो और आडियो कैसिट जारी होते हैं पर यह कोई उनके भक्ति का प्रमाण नहीं है। इस तरह कथायें सुना और भजन गाकर व्यवसायिक संत और गायक अपनी छबि एक भक्त के रूप में समाज में बना लेते हैं पर यह लोगों का भ्रम हैं। राम के चरित्र पर अनेक लोग अपने हिसाब से व्याख्यायें करते हैं पर वह भगवान श्रीराम के नाम का महत्व नहीं जानते। भगवान राम तो अपने भक्तों के हृदय में बसते हैं पर उनका नाम लेकर जो व्यापार करते हैं वह तो अपने अहंकार में होते हैं। दिखाने को कभी कभार वह भी भगवान का नाम लेते हैं पर वह उनके व्यवसाय का हिस्सा होता है। राम के नाम हृदय में धारण करने के बाद आदमी उसका दिखावा नहीं करता और वह इस संसार के दुःख से मुक्त हो जाता है। केवल जुबान लेने पर उसे हृदय में न धारण करने वाले तो हमेशा विपत्ति में पड़े रहते हैं क्योंकि उन्हें अपने कर्तापन का अहंकार होता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, July 23, 2008

संत कबीर वाणी-चिंतामणि ही चित्त में बसे तो चिंता किस बात की

हरिजन गांठि न बाधहीं, उदर समाना लेय
आगे पीछे हरि खड़े, जो मांगै सो देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कि परमात्म की सच्ची भक्ति करने वाले लोग कभी धन का संचय करने का विचार नहीं करते। अपनी भक्ति के कारण उनको यह दृढ़ विश्वास होता है कि उनके साथ तो हर जगह परमात्मा है जो उनक उदर की पूर्ति करता रहेगा।

चिन्तामनि चित में बसै, सोइ चित्त में आनि
बिना प्रभु चिन्ता करै, यह मूरख का बानि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सबकी चिंता करने करने वाले परमात्मा तो चित्त में बसते हैं और जो लोग उसका स्मरण न कर अपने जीवन की चिंता करते हैं वह तो निर्बुद्धि हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-धन और वैभव तो एक माया का बहुत बृहद रूप है। धनी और प्रतिष्ठित लोगों को देखकर सभी उनका अनुकरण करना चाहते हैं पर यह संभव नहीं है। फिर भी लोग माया के पीछे लगे रहते हैं और अपने को ही दिखाने के लिये परमात्मा की भक्ति करते हैं पर उनकी यह भक्ति विश्वास रहित है क्योंकि वह अपने फल का दाता स्वयं ही को समझते है। कहीं किसी मूर्ति के सामने मत्था टेक दिया या कोई धार्मिक किताब ऊंची आवाज में पढ़ ली और फिर निकल पड़े इस मायावी संसार में तमाम तरह के छल कपट करने के लिये क्योंकि उनको इस बात का यकीन नहीं है कि सहजता पूर्वक श्रम करने पर स्वतः ही उदर पूर्ति के लिये धन प्राप्त हो जायेगा।

अनेक कथित साधु संत तो अपने भक्तों पर भक्ति की बरसात करते हैं पर अपने आश्रमों के लिये धन मांगना नहीं भूलते। इसे वह दान कहते हैं। इस दान का वह फिर दान करते हैं। इस मायावी संसार में ऐसे कथित संतों और भक्तों को देखकर यह कहा जा सकता है कि उनका परमात्मा में विश्वास नहीं है। कई कथित संत तो भंडारों आदि के लिये दान मांगते हैं और फिर वह दूसरे के भोजन के लिये अपने को निमित बनाने का प्रयास करते हैंं। वह यह दिखाते हैं कि देखो हमने दूसरे को भोजन करवाया। यह उनका ढोंग है। उनको तो केवल भक्ति का ही प्रचार करना चाहिए यह विचार कर कि सबका दाता तो वह परमात्मा है और सभी को भोजन करवाना चाहिए। इसके विपरीत वह दान का भी संग्रह करते और तमाम तरह के कार्यक्रम आयोजित कर अपने को दानी बताते हैं।
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दीपक भारतदीप, संकलक एवं संपादक

Tuesday, July 22, 2008

संत कबीर वाणी-ऊंच नीच की पहचान गुणों से होती है

ऊंची जाति पपीहरा, पिये न नीचा नीर
कै सुरपति को जांचई, कै दुःख सहै सरीर

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पपीहरा तो एक तरह से ऊंची जाति का दिखता है जो कभी भी नीचे धरती पर स्थित जल का सेवन न कर स्वाति नक्षत्र क जल के लिये याचना देवराज इंद्र से याचना करता है या अपना जीवन त्याग देता है।

पड़ा पपीरा सुरसर, लागा बधिक का बान
मुख मूंदै सुरति गगन में, निकसि गये यूं प्रान


संत शिरामणि कबीरदास जी कहते है शिकारी का बाण लगने से पपीहा नदी में जा गिरा पर इसके बावजूद उसने वहां का जल ग्रहण नहीं किया और उसने अपना मूंह बंद कर ऊपर आकाश में ध्यान लगाया और अपने प्राण त्याग दिये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-देश में ऊंच और नीच को लेकर सदैव विवाद होते रहे हैं। लोग जन्म के आधार पर अपने को ऊंचा और दूसरे को नीचा समझते हैं। यह एक भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि आदमी की पहचान गुणों से है। ऊंची जाति में जन्म लेने के अहंकार में लोग यह मान लेते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक है और वह व्यसनों और अपराधों की तरफ बढ़ जाते हैं। जबकि आदमी के गुण ही उसके ऊंची और नीच होने के प्रमाण हैं। गुणवान, धैर्यवान और शीलवान लोग बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर भी अपने नैतिक आचरण और सिद्धांतों का त्याग नहीं करते जबकि निम्न कोटि के लोग थोड़ी लालच और लोभ में अपना धर्म तक बेचने को तैयार हो जाते हैं। अतः जन्म के आधार पर अपनी जाति का गर्व करने की बजाय आत्म मंथन करते हुए गुणों के आधार पर ही अपने जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए।
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दीपक भारतदीप, संकलक एंव संपादक

Monday, July 21, 2008

रहीम के दोहे-दुष्ट लोगों की संगत से लगता है कलंक

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग

कविवर रहीम कहते हैं कि जिनकी प्रवृत्ति उजली और पवित्र है अगर उनकी संगत नीच से न हो तो अच्छा ही है। नीच और दुष्ट लोगों की संगत से कोई न कोई कलंक लगता ही है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सज्जन और उज्जवन प्रकृति के लोग शांत रहते हैं इसलिये उनको ऐसे लोगों की संगत नहीं करना चाहिये जो दुष्टता और अशांत प्रवृत्ति के होते हैं। वैसे आजकल के लोगों में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि वह दलाल और दादा प्रवृत्ति के लोगों की संगत चाहते हैं ताकि कोई उनका कोई बिगाड़ नहीं सके। फिल्म देखकर यह धारणा बना लेते हैं कि दादा लोग किसी से किसी की भी रक्षा कर सकते हैं। कई सज्जन परिवार को लड़के भी भ्रमित होकर दादा किस्म के लड़कों के चक्कर में पड़ जाते हैं तो कई लड़कियां भी अपने लिये ऐसे मित्र चुनती है जो दादा टाईप के हों। उनको लगता है कि वह दादा किस्म के मित्र इस समाज में प्रतिष्ठित होते हैं। देश में इसलिये ही सभी जगह अपराधीकरण का बोलबाला हो रहा है क्योंकि जो उज्जवल और शांत प्रकृत्ति के हैं वह अपना विवेक खोकर ऐसे लोगों को संरक्षण देते हैं जो समाज के लिये खतरा है।

यह बात समझ लेना चाहिये कि बुरे का अंत बुरा ही होता है। दादा और दलाल आकर्षक लगते हैं पर उनकी समाज में कोई सम्मान नहीं होता। बुराई का अंत होता है और ऐसे में जो दुष्ट लोगों की संगत करते हैं उनको भी दुष्परिणाम भोगना पड़ता है।

संत कबीर वाणी:दूसरे की पीडा न समझे वह मूर्ख

पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष क, भिस्त बसै क्यौं नांहि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी मनुष्यों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगोंे में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये ।

Sunday, July 20, 2008

संत कबीर वाणीः गाय गंदगी खाने लगे तो समझ लो कलियुग आ गया

छाजन भोजन हक्क है, और अनाहक लेय
आपन दोजख जात है, औरों दोजख देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को जीवन निर्वाह के लिये वस्त्र और भोजन पाने का अधिकार है पर जो अनुचित रूप से अपेय या नशीले पदार्थ लेता है उसे नरक में जाना पड़ता है।

गऊ जो विष्ठा भच्छई, विप्र तमाखू भंग
सस्तर बांधे दरसनी, यह कलियुग का रंग

संत कबीर दास जी कहते हैं कि जब गाय गंदगी खाने लगे, विद्वान अनेक प्रकार के व्यसर करने लगे और जब दर्शन करने वाले साधु अस्त्र-शस्त्र बांधने लगे तब समझ लो घोर कलियुग आ गया।

मद तो बहुतक भांति का, ताहि न जानै कोय
तनमद, मनमद जातिमद, मायामद सब लोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मद तो बहुत प्रकार का होता है पर सभी इस बात को नहीं जानते। यह मद हैं शरीर, मन, जाति और माया का मद।

Saturday, July 19, 2008

रहीम के दोहे-अपने कार्य और व्यवहार में अति न कीजिये

रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि

कविवर रहीम कहते हैं कि कभी भी किसी कार्य और व्यवहार में अति न कीजिये। अपनी मर्यादा और सीमा में रहें। इधर उधर कूदने फांदने से कुछ नहीं मिलता बल्कि हानि की आशंका बलवती हो उठती है

यही रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय


कविवर रहीम कहते हैं कि प्रीति, अभ्यास और प्रतिष्ठा में धीरे धीरे ही वृद्धि होती है। इनका क्रमिक विकास की अवधि दीर्घ होती है क्योंकि यह सभी आदमी जन्म के साथ नहीं ले आता। इन सभी का स्वरूप आदमी के व्यवहार, साधना और और आचरण के परिणाम के अनुसार उसके सामने आता है।

Friday, July 18, 2008

संत कबीर वाणी-शिष्यों से पांव पुजवाने वाले गुरुओं की दीक्षा से मुक्ति नहीं

सूर लड़ै गुरु दाव से, इक दिस जूझन होय
जूझै बीना सूरमा भला न कहसी कोय


संत शिरोमणि कबीरदास जी के अनुसार जो शूरवीर होता है वह अपने गुरु के बताये ज्ञान के अस्त्र शस्त्र से इस जीवन संघर्ष में जूझता है। जब तक कोई इस संघर्ष में लड़ने के लिये मैदान में नही उतरता वह साहसी नहीं कहलाता।

पांव पुजावे बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय


संत शिरोमणि कबीर दास जी के अनुसार ऐसे गुरु जो बैठकर केवल अपने शिष्यों से पांव पुजवाते हैं उनकी दीक्षा से कभी मुक्ति नहीं हो सकती बल्कि करोड़ों और नरक भोगने पड़ते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-गुरु से शिक्षा ्रपाप्त करने के बाद मनुष्य को जीवन संघर्ष में लड़ने के लिये उतरना चाहिए। यह संघर्ष दैहिक और मानसिक दोनों स्तरों पर होता है। दैहिक से आशय यह है कि मनुष्य को अपने रोजगार आदि के लिये कार्य करना पड़ता है जिसमें उसे नैतिक आचरण और ईमानदारी से जुटना चाहिए। अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए मीठी वाणी बोलना, किसी के कटु बोलने पर भी क्रोध न करना, परोपकार करना और सहज भाव से सभी के प्रति समान भाव रखने के साथ बुरा समय आने पर विचलित न होना आदमी के मानसिक रूप से पुख्ता होने का प्रमाण है। यह किसी सद्गुरू की शिक्षा से सहज और संभव हो जाता है।

जो गुरु शिक्षा देने के बाद अपने शिष्य को अपने से अलग न कर अपने पास ही बुलाते रहते हैं वह गुरु नहीं है बल्कि व्यवसायी है। वह अपने पास शिष्य को बुलाकर उससे अपनी सेवा कराते हैं। ऐसे गुरु तो कभी ज्ञानी नहीं होते बल्कि उनकी संगत करने से इस धरती के अलावा परलोक में भी नरक भोगना पड़ सकता है। गुरु का कार्य है कि वह अध्यात्म की शिक्षा देकर अपने शिष्य को अपने से अलग कर दूसरे शिष्यों को शिक्षा देने का काम शुरू करे अगर वह ऐसा नहीं करता तो इसका आशय यह है कि वह दिखावटी ज्ञानी है। अध्यात्म शिक्षा देने और प्राप्त करने का उद्देश्य यही है कि मनुष्य अपने जीवन संघर्ष में आगे बढ़ता जाये न कि वह बार-बार गुरु के सेवा में लौटकर आये। जब तक वह शिक्षा प्राप्त कर रहा है तभी तक उसका कर्तव्य है कि वह गुरु की सेवा करे और बाद में दक्षिणा देकर चला जाये न कि केवल गुरु की प्रदक्षिणा कर अपना जीवन नष्ट करता रहे।

Thursday, July 17, 2008

संत कबीर वाणीःजिसने घड़े जैसा मुख दिया वह दाना भी देता है

भूखा भूखा क्या करै, कहा सुनावै लोग
भांड़ा घडिया मुख दिया, सोही पूरन जोग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं अपने भूख के बारे में दूसरे लोगों को बताने से क्या लाभ? जिस परमात्मा ने घड़े जैसा मुख दिया है वह उसकी भूख की पूर्ति के लिये भोजन भी देगा-इस बात पर विश्वास करना चाहिए।

सिरजन हारे सिरजिया, आटा पानी लीन
देनेहारा देत है, मेटनहारा कौन

संत कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के सृजनकर्ता परमात्मा ने सबके लिये व्यवस्था की है। वह सभी को आटा पानी और नमक देने वाले हैं। उनकी व्यवस्था को मिटाने वाला कोई नहीं है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-परमात्मा ने सभी जीवों को मुख दिया है तो भोजन की व्यवस्था भी की है, पर आदमी है कि अपनी समस्याओं को रोना दूसरे लोगों के सामने रोता रहता है। इस तरह सभी मनुष्य एक दूसरे की हंसी उड़ाते हैं। मनुष्य तो अपना पूरा जीवन कमाते, खाते और रोते बिता देता है। इस सृष्टि में खाने के मुख हैं तो उसको भरने के लिये परमात्मा ने अन्न, जल और नमक का इंतजाम भी कर दिया है पर आदमी का मन नहीं भरता। वह हमेशा अपने जीवन में कभी भूखों मरने की आशंका से संचय करता जाता है। उसका यह भय कभी समाप्त नहीं होता और संचय की लालसा उसे गोल गोल केवल धन के आसपास घुमाने लगती है। यह भाग्यवादी विचार धारा नहीं है कि परमात्मा ने सभी के खाने का प्रबंध कर दिया है तो उसे फिर कर्म करने की क्या आवश्यकता है?बल्कि अपना कर्म करते हुये यह विश्वास करना चाहिए कि कर्ता तो वह परमात्मा है जिसने यह जीवन दिया है। मनुष्य ने देह प्राप्त तो की है पर अपने मन की लालसाओं के कारण वह धन संग्रह से आगे विचार नहीं करता और अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है। सभी अपना सांसरिक दुःखों का रोना एक दूसरे के सामने रोते हैं जैसे कि वह कर्ता हों। इस तरह सभी एक दूसरे का उपहास भी उड़ाते हैं।

Wednesday, July 16, 2008

संत कबीर वाणी-नाचते और गाते हुए भक्ति नहीं हो सकती

कबीर तृस्ना टोकना, लीये, डोलै स्वाद
राम नाम जाना नही, जनम गंवाया बाद

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन की तृष्णा तो आदमी को अपने स्वाद के लिये इधर उधर भटकाती है। वह राम का नाम को नहीं जानती और आदमी उसकी संतुष्टि में अपना जीवन व्यर्थ कर देता है।

नाचे गावै पद कहै, नाहीं गुरु सों हेत
कहैं कबीर क्यों नीपजै, बीच बिहुला खेत


संत कबीर दास जी कहते हैं कि कुछ लोग नाचते और गाते हुए भक्ति में लीन होने का अपना अहंकार होने का का प्रदर्शन करते हैं उनका वास्तव में परमात्मा के प्रति प्रेमभाव नहीं होता। वह तो ऐसे खेत की तरह हैं जिनमें भक्ति के बीज बोए हीं नहीं नहीं गये। इसलिये उनका जीवन सफल नहीं हो सकता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अनेक गुरुओं के सत्संग में प्रवचन के दौरान ही लोग भजन के समय नाचते और गाते यह बताने का प्रयास करते हैं कि वह भगवान की भक्ति में लीन है। गुरु भी यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि इस तरह तो उनकी शक्ति का प्रचार हो रहा है। यह दिखावा है। भक्ति और ज्ञान दिखाने की चीज नहीं होती। उनका प्रभाव तो आदमी के चेहरे से दिखने लगता है। भक्ति एकांत साधना है और इस तरह जो लोग सबके सामने नाचते और गाते हैं वह केवल अहंकार के वशीभूत होकर नाचते हैं जैसे कि वह भक्ति कर रहे हैं जबकि उनका पूरा ध्यान इस तरफ होता है कि वह लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करें। मन में परमात्मा का ध्यान हो तो आदमी स्थिर हो जाता है इस तरह नाचता गाता नहीं है।

अपने प्रति लोगों में रुझान पैदा करने की तृष्णा उनके अंदर होती है और वह उन्हें भक्ति के नाम पर ऐसे नाटक करने को प्रेरित करती है। वह वास्तव में परमात्मका का नाम नहीं लेते बल्कि अपने अंदर स्थित अहंकार का प्रदर्शन करते हैं। लोगों में आकर्षण का कें्रद बने रहने की तृष्णा की वजह से कई लोग भक्ति का दिखावा करते है। इतना ही नहीं वह यह भी साबित करने का प्रयास करते हैं कि जैसे बहुत बड़े ज्ञानी हों। सच्ची भक्ति तो केवल एकांत में भी संभव है और ज्ञानी आदमी कभी अपने ज्ञान का बिना वजह प्रदर्शन नहीं करते।

Tuesday, July 15, 2008

संत कबीर वाणी:दूसरे से आशा करने पर होता है अपमान

आस आस घर घर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै,ज्यों चैसर की गोट

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि अपने हृदय मं आशा कर मनुष्य घर घर भटकता है पर पर उसे दूसरे के मुख से अपने लिये अपमान के वचन सुनने पड़ते हैं। केवल आशा पूरी होने के लिये अपनी अज्ञानता के कारण मनुष्य चैसर के गोट की तरह कष्ट उठाता है।
आशा तृस्ना सिंधु गति, तहां न मन ठहराय
जो कोइ आसा में फंसा, लहर तमाचा खाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आशा और तृष्णा और समुद्र की लहरों के समान है हो उठती और गिरती हैं जो मनुष्य इसके चक्कर में फंसता है वह इसके तमाचा खाता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अपना हर कार्य अपने ऊपर ही रखना चाहिए। इस सांसरिक जीवन में सारे कार्य अपने नियत समय पर होते हैं और मनुष्य को केवल निष्काम भाव से कार्य करते हुए ही सुख की प्राप्त हो सकती हैं। श्रीगीता में निष्काम भाव से कार्य करने का उपदेश इसलिये दिया गया है। यह संसार अपनी गति से चल रहा है और उसमें सब कर्मों का फल समय पर प्रकट होता। मनुष्य सोचता है कि मैं इसे चला रहा हूं इसलिये वह अपने ऐसे कार्यों के लिये दूसरों से आशा करता है जो स्वतः होने हैं और अगर मनुष्य उसके लिये अपने कर्म करते हुए परिणाम की परवाह न करे तो भी फलीभूत होंगे। जब अपने आशा पूर्ति के लिये आदमी किसी दूसरे घर की तरफ ताकता है तो उसे उसे अपना आत्मसम्मान भी गिरवी रखना पड़ता है। वैसे अपना कर्म करते जाना चाहिये क्योंकि फल तो प्रकट होगा ही आखिर वह भी इस संसार का एक ही भाग है। आशा और कामना का त्याग कर इसलिये ही निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया गया है।

Monday, July 14, 2008

संत कबीर वाणी:प्रेम में सुख पाने की सोचना होता है संकट का कारण

प्रीति कर सुख लेने को सुख गया हिराय
जैसे पाइ छछुंदरी, पकडि सींप पछिताय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सुख प्राप्त करने के लिये लोग गलत संपर्क बना लेते हैं और फिर कष्ट उठाते हैं। उस समय उनकी दशा ऐसी होती है जैसे सांप छछुंदर को पकड़ कर पछताता है

कबीर विषधर बहु मिले, मणिधन मिला न कोय
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में विषधर सर्प बहुत मिलते हैं, पर मणि वाला सर्प नहीं मिलता। यदि विषधर को मणिधर मिल जाये तो विष भी अमृत बन जाये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संगति का प्रभाव आदमी पर अवश्य होता है। भले ही लोग स्वार्थ के लिये बुरे लोगों की संगति यह विचार कर करते हैं कि उसका कोई प्रभाव नहीं होगा पर यह उनका केवल विचार होता है। जब दुर्गुणी व्यक्ति की संगति की जाती है तो उसकी बातों का प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता ही हैं और मन में कलुषिता का भाव आता ही है। इसके अलावा उसकी संगति से लोगों की दृष्टि में ही गिरते हैं और उसक द्वारा पापकर्म करने पर उसका सहभागी का संदेह भी किया जाता है। इससे अच्छा है कि दुष्ट और दुर्गुणी व्यक्ति के साथ संगति हीं नहीं की जाये। ऐसे लोगों के साथ ही अपना संपर्क बढ़ाया जाये जो भक्ति और ज्ञान रस के सेवन करने में दिलचस्पी लेते हों।

Saturday, July 12, 2008

संत कबीर वाणी:हृदय से कपट न जाए तो भजन से क्या लाभ

हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन और गुण तो नाचते हुए गाते तो बहुत लोग हैं पर उनके हृदय से कपट नहीं जाता। इसलिये उनमे भक्ति भाव और ज्ञान नहीं होता परंतु वह दूसरों के सामने अपना केवल शाब्दिक ज्ञान बघारते है।

पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और गुनते हुए आदमी का अभिमान बढ़ता गया। उसके अंतर्मन में जेा तृष्णाओं और इच्छाओं की अग्नि जलती है उसके ताप से उसे मन में कभी शांति नहीं मिलती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार तो बहुत हुआ है पर अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण आदमी को मानसिक अशांति का शिकार हुआ है। वर्तमान काल में जो लोग भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका उद्देश्य उससे नौकरी पाना ही होता है-उसमें रोजी रोटी प्राप्त करने के साधन ढूंढने का ज्ञान तो दिया जाता है पर अध्यात्म का ज्ञान न होने के कारण भटकाव आता है। बहुत कम लोग हैं जो शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की तलाश नहीं करते-इनमें वह भी उसका उपयोग अपने निजी व्यवसायों में करते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का संबंध किसी न किसी प्रकार से रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में आदमी के पास सांसरिक ज्ञान तो बहुत हो जाता है पर अध्यात्मिक ज्ञान से वह शून्य रहता है। उस पर अगर किसी के पास धन है तो वह आजकल के कथित संतों की शरण में जाता है जो उस ज्ञान को बेचते हैं जिससे उनके आश्रमों और संस्थानों के अर्थतंत्र का संबल मिले। जिसे अध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य के मन को शांति मिल सकती है वह उसे इसलिये नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि वह अपनी इच्छाओं और आशाओं की अग्नि में जलता रहता है। कुछ पल इधर उधर गुजारने के बाद फिर वह उसी आग में आ जाता है।
जिन लोगों को वास्तव में शांति चाहिए उन्हें अपने प्राचीन ग्रंथों में आज भी प्रासंगिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन स्वयं ही श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए ताकि ज्ञान प्राप्त हो। हां, अगर उन्हें कोई योग्य गुरू इसके लिये मिल जाता है तो उससे ज्ञाना भी प्राप्त करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई गेहुंए वस्त्र पहने हुए संत हो। कई लोग ऐसे भी भक्त होते हैं और उनसे चर्चा करने से भी बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये सत्संग में जाते रहना चाहिये।

Friday, July 11, 2008

संत कबीर वाणीः कर्मकांड को धर्म समझना है एक भ्रम

‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।
त्रिज्ञणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन में जो त्रृष्णा की अग्नि कभी बुझती नहीं है जैसे उस पर पानी डालो वैसे ही बढ़ती जाती है। जैसे जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला जाता है पर फिर हरा भरा हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नकर का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढि़यों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए।

Thursday, July 10, 2008

संत कबीर वाणी-झूठे शब्दों की सेना को ज्ञान ध्वस्त कर देता है

हीरा पाया पारखी, धन महं दीन्हा आन
चोट सही फूटा नहीं, तब पाई पहचान

पारखी ने ने हीरा प्राप्त कर लिया और उसकी धन के रूप में कीमत भी आंक ली पर जब चोट की तो वह फूटा नहीं और तब पहचान हुई कि वह कितना मजबूत है।
संक्षिप्त व्याख्या-जब किसी को ज्ञान प्राप्त होता है तो उसको लगता है कि अच्छा हुआ कि वह उसे प्राप्त हो गया और कभी काम आयेगा-उस समय वह उसे सामान्य बात मानता है। जब वक्त पर उसकी परीक्षा वह करता है और अनुभव करता है कि उसका ज्ञान वाकई प्रभावपूर्ण है जो उसके उपयोग करने में चूक नहींे हुई तब उसकी प्रसन्नता का पारावर नहीं रहता। अगर किसी मनुष्य के पास ज्ञान रहता है तो वह विपत्ति आने पर उसकी रक्षा करता है और आदमी चोट खाकर विचलित नहीं होता।

खरी कसौटी तौलतां, निकसि गई सब खोट
सतगुरु सेना सब हनी, सब्द वान की चोट


जब खरी कसौटी पर परीक्षा की जाती है तो सब खोट निकल जाता है। झूठे शब्दों की सेना को सतगुरू का ज्ञान ध्वस्त कर देता है।

संक्षिप्त व्याख्या-झूठ कितना भी बोला जाये अगर उसकी परीक्षा सत्य की कसौटी पर की जाये तो वह पकड़ जाता है उसके लिये जरूरी है ज्ञान होना और ज्ञान के लिये आवश्यक है कोई गुरू होना। कई लोग कहते हैं कि हम बिना गुरू के ज्ञान प्राप्त कर लेंगे पर यह संभव नहीं है। गुरु से आशय यह नहीं है कि कोई संत या सन्यासी हो। जीवन में कई ऐसे लोग होते हैं जो हमें जीवन के बारे में बताते हैं उनको गुरु मानते हुए उनकी बात हृदय में धारण करना चाहिए।

Wednesday, July 9, 2008

संत कबीरवाणीःअपने निंदक को पास में घर बनाकर बसा लो

निन्दक एकहू मति मिलै, पापी मिलै हजार
इक निन्दक के सीस पर, लाख पाप का भार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पापी तो हजार मिलते हैं पर पर निंदा करने वाला महापापी नहीं मिलना चाहिये। एक निंदक के सिर पर लाखों पाप का भार रहता है।

निन्दक नेरे राखिये, आंगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी निंदा करने वाले व्यक्ति को अपने पास मकान बनवाकर रख लो क्योंकि वह बिना पानी और साबुन के ही आपके मन को निर्मल करता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-एक तरह तो कबीरदास जी कहते हैं कि एक भी निंदक नहीं मिलना चाहिऐ दूसरी तरफ कहते हैं कि अपने निंदक को अपने पास ही रखना चाहिए। इसमें सतही तौर पर विरोधाभास लगता है पर गहन अर्थों में दोनों ही गूढ़ रहस्य भरे हुए हैं। हमें स्वयं किसी की निंदा नहीं करना चाहिए। निंदा का अर्थ यह है कि हम दूसरें में दोष देख रहे हैं और जब उनकी कहीं अन्यत्र चर्चा करते हैं तो वह दोष हमारे अंदर भी घर करने लगते हैं। हो सकता है कि हमारी निंदा सुनकर दूसरा व्यक्ति अपने दोष से किनारा कर ले और वह पतित्र हो जाये पर हमारे अंदर उसकी निंदा से जो दोष आया है उसका निराकरण नहीं हो सकता।
दूसरा कोई हमारी निंदा करे तो उससे विचलित नहीं होना चाहिए बल्कि आत्म चिंतन करना चाहिए कि क्या वह दोष वाकई हमारे अंदर है तो फिर उसका निराकरण करना चाहिए। नहीं तो इस बहाने अपना आत्म मंथन तो हो ही जाता है जो कि जीवन के विकास के लिये एक अनिवार्य प्रक्रिया मानी जाती है।

Tuesday, July 8, 2008

संत कबीर वाणी:दूसरों के दोषों पर दृष्टिपात मत करो

दोष पराया देखि करि, चले हसन्त हसन्त
अपना याद न आवई, जाका आदि न अंत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि परनिंदा करने वाले दूसरों की कमियों को देखकर जोर से हंसते हैं परंतु अपने दोषों को वे कभी अपने अंदर के दोष या कमियां नहीं देख पाते जिनका कोई आदि या अंत नहीं होता।

जो तूं सेवक गुरुन का, निंदा की तज वान
निंदक नेरे आय जब, कर आदर सनमान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि किसी को भी संतों और अपने गुरुओं को सच्चा सेवक तभी माना जा सकता है जब वह परनिंदा करना छोड़ दे और जब अपना निंदक सामने आये तो उसका मान सम्मान करे।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है कि वह दूसरों के दोष या कमी देखकर हंसता है और इस तरह अपने को यह तसल्ली देता है कि वह उसमें नहीं है। कोई गरीब ह,ै कोई अपनी कार्य में असफल हुआ है तो उस पर उसके अपने लोग ही हंसते हैं। दूसरों की बीमारी, गरीबी या किसी अंग दोष पर हंसने वालों की कमी नहीं हैं क्योंकि मनुष्य अपने अंदर दोष देखने लगे तो उसका उसे आदि और अंत ही नहीं मिलेगा। तब उसे पता लगेगा कि उसके अंदर तो ढेर सारे दोष है क्योंकि दूसरे के तो एक या दो दोष ही प्रकट होते हैं पर अगर अपने अंदर झांके तो अपने सारे दोष दिखाई देंगे इस सच से भागता आदमी दूसरों की निंदा कर अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है।

लोग दो तरह के होते हैं । एक तो वह जो दूसरे की लकीर को छोटा करने के लिये अपनी बड़ी लकीर खींचते हैं और दूसरे वह जो थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दूसरे के दोष देखकर अपने को अच्छा साबित करने का प्रयास करते है। दूसरों के दुःख का प्रचार कर अपने आपको प्रसन्न अनुभव करते हैंैं। अनेक गुरुओं के अनेक संत भी इस परनिंदा और परदोष पर दृष्टिपात करने में लिप्त रहते हैं। यह मूर्खतापूर्ण कार्य हर आदमी जाने अनजाने में करता ही है। जो समझदार हैं अगर उनको इस ज्ञान का आभास कराया जाये तो वह इस बुराई से बच सकते हैं। उनको बताया जाये कि दूसरों की निंदा या दोष पर दृष्टिपात करने से पूर्व अपने अंतर्मन में स्थित दोषों और कमियों पर दृष्टिपात करो। अगर सच्चे भक्त हो तो इस प्रवृत्ति से बचने का प्रयास करो ।

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